हिन्दी पत्रकारिता की भाषा
- राजकिशोर
- राजकिशोर
'प्रिंट मीडिया' को हम 'मुद्रित माध्यम' क्यों नहीं कहते? ऐसा कैसे हुआ कि अखबारों और पत्रिकाओं के विशिष्ट वर्ग की ओर संकेत करने के लिए हमारे दिमाग में तुरंत यही एकमात्र शब्द कौंधता है? इस प्रश्न के उत्तर में ही जन माध्यमों में हिंदी भाषा के स्वरूप की पहचान छिपी हुई है।
जब कोलकाता से हिंदी साप्ताहिक 'रविवार' शुरू हो रहा था, उस समय मणि मधुकर हमारे साथ थे। कार्यवाहक संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह मीडिया पर एक स्तंभ शुरू करने जा रहे थे। प्रश्न यह था कि स्तंभ का नाम क्या रखा जाए। मणि मधुकर लेखक आदमी थे। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका था। उनसे पूछा गया, तो वे कुछ सोच कर बोले - संप्रेषण। सुरेंद्र जी ने बताया कि उन्हें 'माध्यम' ज्यादा अच्छा लग रहा है। अंत में स्तंभ का शार्षक यही तय हुआ। लेकिन सुरेंद्र प्रताप की विनोद वृत्ति अद्भुत थी। उन्होंने हंसते हुए मणि मधुकर से कहा, 'दरअसल, हम दोनों ही अंग्रेजी से अनुवाद कर रहे थे। आपने 'कम्युनिकेशन' का अनुवाद संप्रेषण किया और मैंने 'मीडिया' का अनुवाद माध्यम किया।'
जाहिर है, 1977 में हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी की छाया दिखाई पड़ने लगी थी। कवर स्टोरी को आवरण कथा या आमुख कथा कहा जाता था। लेकिन आज कवर स्टोरी का बोलबाला है। अंग्रेजी अब अनुवाद में नहीं, सीधे आ रही है और बता रही है कि हम अनुवाद की संस्कृति से निकल कर सीधे अंग्रेजी के चंगुल में है। अनुवाद में अनुगतता की छाया है, अंग्रेजी के सीधे इस्तेमाल में बराबरी का संदेश है। जानते हैं जी, हम भी अंग्रेजी जानते हैं। और दकियानूस भी नहीं हैं कि पोंगा पंडितों की तरह हर शब्द का हिन्दी पर्याय खोजते या बनाते रहें। जो तुमको हो पसंद, वही बैन कहेंगे। पंखे को अगर फैन कहो, फैन कहेंगे। किसी टेलीविजन चैनल की भाषा कितनी जनोन्मुख है, इसका फैसला इस बात से किया जाता है कि उस चैनल पर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कितना प्रतिशत होता है। ऐसे माहौल में अगर दूरदर्शन की भाषा पिछड़ी हुई, संस्कृतनिष्ठ और प्रतिक्रियावादी लगती है, तो इसमें हैरत की बात क्या है!
अराजकता का जन्म तभी होता है जब व्यवस्था अपना निर्धारित काम करना बंद कर चुकी होती है। हिन्दी पत्रकारिता की 1977 के पहले की भाषा की याद करें, तो वह 1950 के आसपास से ही ठप हो चुकी थी। हिन्दी ने ही राष्ट्रपति, संसद, विधेयक जैसे शब्द गढ़े थे, पर विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी का वंश उनके साथ ही डूब गया। वे पत्रकार थे -- समाज के सांस्कृतिक नेताओं में एक। उनके जाते ही हिन्दी पत्रकारिता में आलोचनात्मक विवेक का सूर्यास्त हो गया। जिन्हें संपादक बनाया गया, वे अपने आभामंडल में आत्म-मुग्ध थे। यह सुविधा उन्हें इसलिए मिली कि वे आदर्श कर्मचारी थे, जिसके कारण मालिक को किसी दिक्कत में नहीं पड़ना पड़ता था। नेहरू युग को ऐसी सर्वसहमति का समय कहा जा सकता है जिसमें सच देखना, सच कहना और सच सुनना राष्ट्रीय गुनाह मान लिया गया था। जब पत्रकारिता में किसी भी अन्य स्तर पर सर्जनात्मकता के दर्शन नहीं हो रहे थे, तब उसकी भाषा में किसी किस्म की कौंध पैदा होने की संभावना कहां थी? बासी विचारों को बासी भाषा ही वहन कर सकती है।
उस युग की पत्रकारिता को मैं हिन्दी, या कह लीजिए भारतीय पत्रकारिता का भक्ति काल कहता हूं -- इस फर्क के साथ कि हिन्दी कविता के भक्ति काल में फिर भी अनेक प्रगतिशील तत्व थे। उसमें रस भी था। पत्रकारिता का भक्ति काल आत्मदैन्य और आत्महीनता से भरपूर राधास्वामी संप्रदाय का विस्तार था। वह रामचरितमानस नहीं, विनय पत्रिका थी। असली विनय पत्रिका में सच्चा दर्द और मुक्ति की सच्चा कामना होती है, नकली विनय पत्रिका हैतुक प्रेम और चापलूसी के मल से वेष्ठित होती है। ये वे गुण हैं जो मानव व्यवहार तथा रुझान के अद्वितीय जानकार महर्षि वात्स्यायन ने आदर्श गणिका के लिए आवश्यक बताए हैं।
1977 में शुरू हुए हिन्दी पत्रकारिता के वीरगाथा काल की प्रमुख देन यह है कि पहली बार हिन्दी जनता के करीब आई। इसलिए उसकी भाषा भी बदली। यह बदलाव कला के स्तर पर 'दिनमान' में सबसे अधिक परिलक्षित हुआ -- खासकर रघुवीर सहाय के संपादन में। इसे मैं उच्च परंपरा का एक विस्तार मानता हूं, जिसकी जड़ें साहित्य की तत्कालीन संस्कृति में थीं। 'दिनमान' के नायकों में सच्चिदानंद वात्स्यायन, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा, सर्वे·ार दयाल सक्सेना, नेत्रसिंह रावत आदि का नाम सहज ही याद आता है। जिसे सबाल्टर्न परंपरा कहा जाता है, उसका श्रेष्ठतम उत्कर्ष 'रविवार' में दिखाई पड़ा। यह एकदम जमीन से जुड़ी हुई पत्रकारिता थी, जिसने पत्रकारिता की हिन्दी को उस तरह खोला जैसे रामधारी सिंह दिनकर और हरिवंशराय बच्चन ने कविता की हिन्दी को खोला था। पत्रकारिता की भाषा और शिल्प को 'रविवार' ने जितनी तरह से बदला, उसे सीधा और संप्रेषणशील बनाया, उसका मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। बाद में संपादन-सम्राट प्रभाष जोशी के संपादन में यही काम 'जनसत्ता' ने और अधिक सर्जनात्मकता तथा सतर्कता से किया। इसके पहले कौन-सा अखबार 'पंजाब में पौ फटी' जैसा ठेठ हिन्दी का शीर्षक लगा सकता था? पुराने स्कूल के संपादक इसे पत्रकारिता में भिखारी ठाकुर या कुशवाहा कांत का प्रवेश मानते।
अब मैं बड़े विषाद के साथ हिन्दी पत्रकारिता के रीति काल या श्रृंगार काल की चर्चा करूंगा, जब वह अपने चरम उभार तक पहुंचने की प्रतीक्षा में रोज आईने के सामने अपना जायजा ले रही है। यह एक तरह से 'अर्श से फर्श पर गिरा डाला' की स्थिति है। जो लोग मानते हैं कि पत्रकारिता को उद्योग बनना ही था और रचना से उत्पाद में ढलना ही था, वे औद्योगिकता और उत्पादन का एक ही अर्थ समझते हैं। इला भट्ट की संस्था 'सेवा' भी बिजनेस करती है, लेकिन उसकी संस्कृति 'फैब इंडिया' से अलग है। यह वह समय था जब उत्तर भारत में लुच्चई एक सम्मानित मूल्य बन चुकी थी और भाषा तथा विचार के स्वाभिमान का लोप हो चुका था। चमक-दमक आत्मा की सबसे बड़ी दुश्मन है। जैसे स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता के चरित्र की सटीक भविष्यवाणी पराड़कर जी 1925 में वृंदावन वाले अपने ऐतिहासिक व्याख्यान में कर चुके थे (पत्र सुंदर होंगे। आकार बड़े होंगे। छपाई अच्छी होगी। मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे। लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषण की झलक होगी, और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में होगी। यह सब होगा, पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त अथवा मानवता के उपासक महाप्राण संपादकों की नीति न होगी -- इन गुणों से संपन्न लेखक विकृत-मस्तिष्क समझे जाएंगे। संपादक की कुरसी तक उनकी पहुंच न होगी। वेतनभोगी संपादक मालिक का काम करेंगे। वे हम लोगों से अच्छे होंगे। पर आज भी हमें जो स्वतंत्रता प्राप्त है, वह उन्हें न होगी।') वैसे ही रघुवीर सहाय अपने बाद के समय की संस्कृति को सिर्फ एक जुमले में बांध गए थे -- उत्तम जीवन दास विचार।
यह कहना पीड़ादायक है कि जो लोग हिंदी के उच्च प्रसार संख्या वाले दैनिक पत्रों में काम करते हैं, वे भाषाई संकरता के कामरूप-कामाख्या की मिथकीय भेड़ें हो चुके हैं। आज के मुहावरे में उन्हें भूमंडलीकृत भारत के भाषाई भड़ैतिए कहा जाएगा। लेकिन इसके लिए सिर्फ इन्हें जिम्मेदार मानना ह्मदयहीनता होगी। कुछ काबा के लिए निकले थे और कलीसा पहुंच गए। बाकी के लिए कलीसा ही काबा है। जहां माल, वहां राल। यह वह समय था जब आर्थिक जगत में अंबानी और हर्षत मेहता का तड़ित प्रवेश हो चुका था और हिन्दी पत्रकारिता का रास्ता पहली बार टकसाल की ओर जाता हुआ दिखाई पड़ने लगा था। उन्हीं दिनों हिन्दी पत्रकारिता के युवा तुर्क उदयन शर्मा 'रविवार' को बंद करा कर अंबानी का दो कौड़ी का साप्ताहिक 'संडे ऑब्जर्वर' निकालने के लिए अपने लंबे कैरियर को दांव पर लगा चुके थे और सुरेंद्र प्रताप सिंह आरक्षण का उग्र समर्थन करने के साथ-साथ उदारीकरण और वि·ाीकरण के पक्षधरों में दाखिल हो गए थे। जब अर्थलोलुप और संस्कृतिविहीन पत्रस्वामी हिंदी पत्रकारिता का कायाकल्प कर रहे थे (नई काया को नई आत्मा चाहिए थी और वह 'खरीदी कौड़ियों के मोल' उपलब्ध थी) उस वक्त काम कर रहे हिंदी पत्रकारों ने अगर उनके साथ आज्ञाकारी सहयोग नहीं किया होता, तो उनमें से प्रत्येक की नौकरी खतरे में थी। आज भी कुछ घर-उजाड़ू या पत्रकारों को छोड़ हिंदी का कोई भी पत्रकार अंग्रेजी-मर्दित हिंदी अपने मन से नहीं लिखता। उसे यह अपने ऊपर और अपने पाठकों पर सांस्कृतिक अत्याचार लगता है। वह झुंझलाता है, क्रुद्ध होता है, हंसी उड़ाता है, कभी-कभी मिल-जुल कर कोई अभियान चलाने का सामूहिक निश्चय करता है, लेकिन आखिर में वही ढाक के तीन पात सामने आते हैं और वह दिया हुआ काम दी हुई भाषा में दिए हुए ढंग से संपन्न कर उदास मन से घर लौट जाता है। उसके सामने दिन में कई-कई बार यह तथ्य (मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां हैं, जरा समझो सजन मजबूरियां हैं) उजागर होता है कि जिस अखबार में वह काम कर रहा है, वह उसका घर नहीं, छप्पन छुरी बहत्तर पेच वाली गली है। जिस व्यक्ति ने रुपया लगाया है, वही तय करेगा कि क्या छपेगा, किस भाषा में छपेगा और किन तसवीरों के साथ छपेगा। मेन्यू ब्राांड मैनेजर बनाएगा, पत्रकार का काम रसोइए और बेयरे का है। यह अनासक्ति योग की नई परिभाषा थी।
ऐसा क्यों हुआ? कैसे हुआ? यहां मैं एक संस्मरण की शरण लूंगा। नवभारत टाइम्स के दिल्ली संस्करण से विद्यानिवास मिश्र विदा हो चुके थे --- यह घोषणा करते हुए कि अब इस गली में दुबारा नहीं आऊंगा। विष्णु खरे को भी जाना पड़ा था। स्थानीय संपादक का पद सूर्यकांत बाली नाम के एक सज्जन संभाल रहे थे। अखबार की संपादकीय नीति का नेतृत्व स्वयं पत्र-स्वामी और ब्राांड मैनेजर कर रहे थे। बाली की विशेषता यह थी कि वे इन दोनों की हर नई स्थापना से तुरंत सहमत हो जाते थे, बल्कि उससे कुछ आगे भी बढ़ जाते थे। आडवाणी ने इमरजेंसी में पत्रकारों के आचरण पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि उन्हें झुकने को कहा गया था, पर वे रेंगने लगे। मैं उस समय के स्थानीय संपादक को रेंगते हुए देखता था और अपने दिन गिनता था।
सूर्यकांत बाली संपादकीय बैठकों में हिंदी पत्रकारिता के नए फलसफे के बारे में पत्र स्वामी के विचार इस तरह प्रगट करते जैसे वे उनके अपने विचार हों। युवा पत्र स्वामी की चिंता यह थी कि नवभारत टाइम्स युवा पीढ़ी तक कैसे पहुंचे। वे अकसर यह लतीफा सुनाते थे कि जब बहादुरशाह जफर मार्ग से, जहां नवभारत टाइम्स का दफ्तर है, किसी बूढ़े की लाश गुजरती है, तो मुझे लगता है कि नवभारत टाइम्स का एक और पाठक चस बसा। नए पाठकों की तलाश में उन्होंने शहरी युवा को निशाना बनाया। उन्होंने हिंदी के संपादकों से कहा कि हिंदी में अंग्रेजी मिलाओ, वैसी पत्रकारिता करो जैसी नया टीओआई कर रहा है, नहीं तो तुम्हारी नाव डूबने ही वाली है। सरकुलेशन नहीं बढ़ेगा, तो एडवर्टीजमेंट नहीं बढ़ेगा, रेवेन्यू में कमी आएगी और अंत में वी विल बी फोस्र्ड टु क्लोज डाउन दिस पेपर। सूर्यकांत बाली इस नए योग वाशिष्ठ के प्रवचनकार बने और हमें बताने लगे कि हम लोगों को विशेषज्ञ की जगह एक्सपर्ट, समाधान की जगह सॉल्यूशन, नीति की जगह पॉलिसी और उदारीकरण की जगह लिबराइजेशन लिखना चाहिए। एक दिन उनके ये उदात्त विचार हमने 'पाठकों के पत्र' स्तंभ में एक छोटे-से लेख के रूप में पढ़े। उस लेख को हिंदी पत्रकारिता के नए इतिहास में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में स्थान मिलना चाहिए।
इस नई चाल में ढलने को कोई चाहे तो हिंदी की सार्मथ्य भी बता सकता है। दरअसल, यह भाषा अपने आदिकाल से ही संघर्ष कर रही है। उसे उसका प्राप्य अभी तक नहीं मिल सका है। अपने को बचाने की खातिर हिंदी ने कई तरह के समझौते भी किए। अवधी, ब्राजभाषा, भोजपुरी, उर्दू आदि के साथ अच्छे रिश्ते बनाए। अंग्रेजी से भी दोस्ती का हाथ मिलाया। यह हिंदी की चयापचय क्षमता है जो किसी भी जिंदादिल भाषा की होती है। इस प्रक्रिया में वह आसपास की हर चीज का हिंदीकरण कर लेती है। अतः उसने अंग्रेजी शब्दों का भी हिंदीकरण किया। आजादी के बाद भी हिंदी अंग्रेजी शब्दों के हिंदी प्रतिशब्द बनाती रही। बजट, टिकट, मोटर और बैंक जैसे शब्द सीधे ले लिए गए, क्योंकि ये हिंदी के प्रवाह में घुल-मिल जा रहे थे और इनका अनुवाद करने के प्रयास में 'लौहपथगामिनी' जैसे असंभव शब्द ही हाथ आते थे। आज भी पासपोर्ट को पारपत्र कहना जमता नहीं है, हालांकि इस शब्द में जमने की भरपूर संभावना है।
1970-80 के दौर में जनसाधारण के बीच हिंदी का प्रयोग करनेवालों में सांस्कृतिक थकावट आ गई और इसी के साथ उनकी शब्द निर्माण की क्षमता भी कम होती गई। तब तक यह तय हो चुका था कि राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का कोई भविष्य नहीं है। अलबेली हिंदी को आगे चल कर क्या होना है, यह तब और साफ हो गया जब दिनमान टाइम्स, संडे मेल, संडे ऑब्जर्वर जैसे नामों वाले साप्ताहिक हिंदी में निकलने लगे। यह प्रवृत्ति 70 के दशक में मौजूद होती, तो हिंदी में 'रविवार' नहीं, 'सनडे' ही निकलता। 'इंडिया टुडे' हिन्दी तथा कुछ अन्य भाषाओं में इसी नाम से निकलता है। 90 के दशक में जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया ने भारत की अंग्रेजी पत्रकारिता का चेहरा बदल डाला, उसे आत्मा-विहीन कर दिया, वैसे ही नए नवभारत टाइम्स ने हिंदी पत्रकारिता में एक ऐसी बाढ़ पैदा कर दी, जिसमें बहुत-से मूल्य और प्रतिमान डूब गए। बाजारगत सफलता फूहड़ रंगचित्र को भी क्लासिक बना देती है। नवभारत टाइम्स का यह नवीनीकरण आर्थिक दृष्टि से सफल हुआ और अन्य अखबारों के लिए मॉडल बन गया। कुछ हिंदी पत्रों में तो अंग्रेजी के स्वतंत्र पन्ने भी छपने लगे। अशर्फियों की लूट में कौन पीछे रहता? प्रभाष जोशी ने एक जमाने में सरकारी हिन्दी का उपहास करते हुए लेख लिखा था -- सावधान, पुलिया संकीर्ण है। आज उन्हें लिखना होगा -- सावधान, आगे कर्व है।
इस मारधाड़ में हिन्दी पत्रकारिता की भाषा का क्या होने लगा, इसका एक नमूना प्रभु जोशी ने अपने एक सुंदर लेख में यह दिया है : 'मार्निंग अवर्स के ट्रेफिक को देखते हुए डिस्ट्रिक्ट एडमिनिस्ट्रेशन ने जो ट्रेफिक रूल्स अपने ढंग से इंप्लीमेंट करने के लिए जो जेनुइन एफट्र्स किए हैं, वो रोड को प्रोन टू एक्सीडेंट बना रहे हैं। क्योंकि, सारे व्हीकल्स लेफ्ट टर्न ले कर यूनिवर्सिटी की रोड को ब्लॉक कर देते हैं। इस प्रॉब्लम का इमीडिएट सोल्यूशन मस्ट है।' प्रभु जोशी बताते हैं, 'जब देश में सबसे पहले मध्य प्रदेश के एक स्थानीय अखबार ने विज्ञापनों को हड़पने की होड़ में बाकायदा सुनिश्चित व्यावसायिक रणनीति के तहत अपने अखबार के कर्मचारियों को हिन्दी में 40 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी के शब्दों को मिला कर ही किसी खबर के छापे जाने के आदेश दिए और इस प्रकार हिन्दी को समाचार पत्र में हिंग्लिश के रूप में चलाने की शुरुआत की, तो मैं अपने पर लगनेवाले संभव आरोप मसलन प्रतिगामी, अतीतजीवी, अंधे राष्ट्रवादी और फासिस्ट आदि जैसे लांछनों से डरे बिना एक पत्र लिखा।'
प्रभु जोशी ने पत्र स्वामी को जो तर्कपूर्ण और मार्मिक पत्र लिखा, उसकी कुछ पंक्तियां अविस्मरणीय हैं -- एक, 'बहरहाल, अब ऐसी हिंसा सुनियोजित और तेज गति के साथ हिन्दी के खिलाफ शुरू हो चुकी है। इस हिंसा के जरिए भाषा की हत्या करने की सुपारी आपके अखबार ने ले ली है। वह भाषा के खामोश हत्यारे की भूमिका में बिना किसी तरह का नैतिक संकोच अनुभव किए अच्छी-खासी उतावली के साथ उतर चुका है। उसे इस बात की कोई चिंता नहीं कि एक भाषा अपने को विकसित करने में कितने युग लेती है।' दो, 'लगता है आप हिन्दी के लिए हिन्दी का अखबार नहीं चला रहे हैं, बल्कि अंग्रेजी के पाठकों की नर्सरी का काम कर रहे हैं। … आपका अखबार उस सर्प की तरह है जो बड़ा हो कर अपनी ही पूंछ अपने मुंह में ले लेता है और खुद को ही निगलने लगता है।' तीन, 'आपको याद होना चाहिए कि सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टि से उपजी भाषा-चेतना ने इतिहास में कई-कई लंबी लड़ाइयां लड़ी हैं। इतिहास के पन्ने पलटेंगे तो आप पाएंगे कि आयरिश लोगों ने अंग्रेजी के खिलाफ बाकायदा एक निर्णायक लड़ाई लड़ी, जबकि उनकी तो लिपि में भी भिन्नता नहीं थी। फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश आदि भाषाएं अंग्रेजी के साम्राज्यवादी वर्चस्व के विरुद्ध न केवल इतिहास में, अपितु इस इंटरनेट युग में भी फिर नए सिरे से लड़ना शुरू कर चुकी हैं। इन्होंने कभी अंग्रेजी के सामने समर्पण नहीं किया।' प्रभु जोशी ने अपने पत्र का उत्तर पाने के लिए काफी दिनों तक इंतजार किया। अब उन्होंने यह उम्मीद छोड़ दी है।
भाषा संस्कृति का वाहक होती है। प्रत्येक सांस्कृतिक बदलाव अपने लिए एक नई भाषा गढ़ता है। नक्सलवादियों की भाषा वह नहीं है जिसका इस्तेमाल पीसी जोशी, नंबूदिरिपाद या गोपालन किया करते थे। आज के विज्ञापनों की भाषा भी वह नहीं है जो 80 के दशक तक होती थी। यह एक नई संस्कृति है जिसके पहियों पर आज की पत्रकारिता इठलाते और इतराते हुए चल रही है। इसे मुख्य रूप से उपभोगवाद की संस्कृति कह सकते हैं, जिसमें किसी भी प्रकार की वैचारिकता के लिए जगह नहीं है। जैसे दिल्ली के प्रगति मैदान में उत्तम जीवन (गुड लिविंग) की प्रदर्शनियां लगती हैं, वैसे ही आज हर अखबार उत्तम जीवन को उत्तर-आधुनिक ढंग से परिभाषित करने लगा है। उत्तर-आधुनिकता में विविधता का स्वीकार और आग्रह है, पर यहां आलम यह है कि सभी अखबार एक जैसे नजर आते हैं - सभी में एक जैसे रंग, सभी में एक जैसी सामग्री तथा सफलता और संपन्नता पाने के लिए एक जैसी शिक्षा। पत्रकारिता के इस नए चरागाह में मुझे एक ही चीज काम की दिखाई देती है -- रोगों से बचने और सेहत बनाए रखने के नुस्खे।
इसका असर हिंदी की जानकारी के स्तर पर भी पड़ा है। टीवी चैनलों में उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है जो शुद्ध हिंदी के प्रति सरोकार रखते हैं। प्रथमतः तो ऐसे व्यक्तियों को लिया ही नहीं जाता। किसी धोखे में ले लिया गया, तो उनसे मांग की जाती है कि वे ऐसी हिंदी लिखें और बोलें जो श्रोताओं की नहीं, ऑडिएंस की समझ में आए। नेहरू युग की मिश्रित अर्थव्यवस्था की तरह यह भाषा हिन्दी और अंग्रेजी की बेलज्जत खिचड़ी ही हो सकती है। टीवी के परदे पर अकसर गलत हिंदी दिखाई देती है और एंकरों के मुंह से गलत हिन्दी सुनाई देती है, तो यह यूं ही नहीं है। ऐसा कह कर मैं कोई न्यूज ब्रोक नहीं कर रहा हूं कि अनेक हिंदी समाचार चैनलों के प्रमुख ऐसे महानुभाव हैं जिन्हें हिंदी आती ही नहीं और यह उनके लिए शर्म की नहीं, गर्व की बात है। हम हिंगलिश, हमारी भाषा हिंगलिश। नीचे के पत्रकारों को अगर हिन्दी ज्ञान बढ़ाने की फिक्र नहीं है, तो इसका कारण यह है कि अच्छी हिंदी की मांग नहीं है और संस्थानों में उसकी कद्रदानी भी नहीं है जो सही हिन्दी लिख सकते हैं। हिंदी दुनिया की एकमात्र अभागी भाषा है जिसे न जानते हुए भी हिंदी की पत्रकारिता की जा सकती है और पुरस्कार भी पाए जा सकते हैं।
हिन्दी पत्रकारिता की ट्रेजेडी यह है कि टेलीविजन से प्रतिद्वंद्विता में उसने अपने लिए कोई नई या अलग राह नहीं निकाली, बल्कि वह टेलीविजन का अनुकरण करने में लग गया। याद करने की जरूरत है कि जब हिंदी क्षेत्र में व्यावसायिक टेलीविजन का प्रसार शुरू हो रहा था, हिंदी पत्रों की आत्मा आखिरी हिचकियां लेने लग गई थी। पुनर्नवा होने के लिए उसके पास एक ही मॉडल था, टेलीविजन की पत्रकारिता। संपादक रह नहीं गए थे जो कुछ सोच-विचार करते और पिं्रट को इलेक्ट्रॉनिक का रीमिक्स होने से बचा पाते। आज का मालिक पैसे के लिए संस्कृति क्या चीज है, सभ्यता का भी त्याग कर सकता है। नतीजा यह हुआ कि हिन्दी के ज्यादातर अखबार फूहड़ टेलीविजन की फूहड़तर नकल बन गए। इसका असर उनकी भाषा पर पड़ना ही था। जीभ का सीधा संबंध पेट से है। हिंदी का टेलीविजन जो काम कर रहा है, वह एक विकार-ग्रस्त भाषा में ही हो सकता है। अशुद्ध आत्माएं अपने को शुद्ध माध्यमों से प्रगट नहीं कर सकतीं। सो हिंदी पत्रों की भाषा भी भ्रष्ट होने लगी। एक समय जिस हिंदी पत्रकारिता ने राष्ट्रपति, संसद जैसे दर्जनों शब्द गढ़े थे, जो सबकी जुबान पर चढ़ गए, उसी हिंदी के पत्रकार प्रेसिडेंट, प्राइम मिनिस्टर जैसे शब्दों का बेहिचक इस्तेमाल करने लगे। इसके साथ ही यह भी हुआ कि हिंदी पत्रों में काम करने के लिए साहित्य का छोड़ा भी संस्कार आवश्यक नहीं रह गया। पहले जो हिंदी का पत्रकार बनना चाहता था, वह कुछ साहित्यिक संस्कार ले कर आता था। वास्तव में शब्द की श्रेष्ठतम रचनात्मक साधना तो साहित्य ही है। गोत्र के इसी रिश्ते से हिंदी पत्रों में कुछ साहित्य भी छपा करता था। कहीं-कहीं साहित्य संपादक भी होते थे। लेकिन नए वातावरण में साहित्य का ज्ञान अवगुण बन गया। साहित्यकारों को एक-एक कर अखबारों से बाहर किया जाने लगा। इस तरह हिन्दी पहली बार गरीब की जोरू बनी, जिसके लंहगे के साथ कोई भी कभी भी खेल सकता है। यही कारण है कि अब अधिकतर हिंदी अखबारों में अच्छी भाषा पढ़ने का आनंद दुर्लभ तो हो ही गया है, उनसे शुद्ध लिखी हुई हिंदी की मांग करना भी नाजायज लगता है। जिनका हिंदी से कोई लगाव नहीं है, जिनकी हिंदी के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, जो हिंदी की किताबे नहीं पढ़ते (सच तो यह है कि वे कोई भी किताब नहीं पढ़ते), उनसे यह अपेक्षा करना कि वे हिंदी को सावधानी से बरतें, उनके साथ वैसा ही गंभीर अन्याय है जैसा गधे से यह मांग करना कि वह घोड़े की रफ्तार से चल कर दिखाए।
आगे क्या होगा? क्या हिंदी बच भी पाएगी? जिन कमियों और अज्ञानों के साथ आज हिंदी का व्यवहार हो रहा है, वैसी हिंदी बच भी गई तो क्या? जो कमीज उतार सकता है, वह धोती भी खोल सकता है। इसलिए यह आशंका अवास्तविक नहीं कि धीरे-धीरे अन्य भारतीय भाषाओं की तरह हिंदी भी मरणासन्न होती जाएगी। आज हिंदी जितनी बची हुई है, उसका प्रधान कारण हिंदी क्षेत्र का अविकास है। अब अविकसित लोग ही हिंदी के अखबार पढ़ते हैं। पर उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में जाने लगे हैं। जिस दिन यह प्रक्रिया पूर्णता तक पहुंच जाएगी, हिंदी पढ़नेवाले हिब्राू के जानकारों की तरह अल्पसंख्यक हो जाएंगे। विकसित हिंदी भाषी परिवार से निकला हुआ बच्चा सीधे अंग्रेजी पढ़ना पसंद करेगा। यह एक भाषा की मौत नहीं, एक संस्कृति का अवसान है। कुछ लोग कहेंगे, यह आत्महत्या है। मैं कहता हूं, यह खून है।
क्या बचने का कोई रास्ता बचा है? एक सुझाव यह है कि पत्रकारिता तथा अन्य संचार माध्यमों में हिन्दी के पुनर्वास के लिए अभियान चलाया जाए। यह पूरे शरीर के बुखार को उतारने के बजाय सिर्फ हाथ-पैर का बुखार उतारने की कोशिश होगी। जरूरत एक सर्वव्यापी स्वदेशी भाषा आंदोलन छेड़ने की है। लेकिन वह भी तभी स-फल होगा जब वह राजनीति, अर्थव्यवस्था, प्रशासन आदि के जनवादी पुनर्विन्यास के साथ-साथ चलाया जाए। शोहदागीरी के साथ टकराए बिना शोहदों से साफ और मीठी भाषा बुलवाना खयाली पुलाव है।
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ek behatrin lekh. aaj english ke bhav me bhe ja rehe hee. media me sabko samet liya gaya hee. print avm elc. me antar kiya jana chahiye. kam se kam yah lekh hum sab ko mazbur karega sochne ke liye.
जवाब देंहटाएंmanoj kumar editor madia sathiyo ki patrika SAMAGAM
is aalekh ko apni patrika me upyog kiya ja sakata he.
जवाब देंहटाएंManoj Kumar
Editor
SAMAGAM
rajkishorji ki lekhani me ek adbhut jadoo hai.
जवाब देंहटाएंachcha lekh hai.