प्रभु जोशी बताते हैं कि अन्तिम कहानी उन्होंने १९७७ में लिखी थी। पर मुझे आशा है कि जोशी जी से कुछ नई कहानियाँ लिखवाने में हमारा यह प्रयास सार्थक सिद्ध होगा; और निकट भविष्य में शीघ्र ही उनकी किसी नई कहानी को पढ़ने का अवसर हमें मिलेगा।
इस कहानी के समापन के बाद प्रभु जोशी जी की ही लिखी हुई "पहली कहानी के लिखे जाने की कहानी" को भी अपनी पूरी रोचकता के साथ आप यहीं पढ़ पाएँगे , जो निस्संदेह एक कथाकार द्वारा रचना प्रक्रिया के विविध पक्षों का खुलासा करने वाला एक रोचक दस्तावेज है।
आप सभी की हर प्रकार की प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी |
- कविता वाचक्नवी
अमि काफी देर से नहा रही है। एकदम चुप-सी हो कर। नहाते समय उसे कुछ गुनगुनाना नहीं आता। और ना ही आता है, विवस्त्र होकर नहाना, वरन् वह तो उम्र की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अपनी यात्रा के एक ऐसे बिंदु पर आ चुकी है, जहाँ अपनी देह में निरन्तर होते जा रहे परिवर्तन को देखने का जंगली-सम्मोहन अपनी पूरी तीव्रता पर होता है। देहासक्ति की एक सहज दीप्त इच्छा। मगर, अमि ने अभी तक इस सबको लेकर ऐसी कोई ख़ास तल्ख़ी महसूस ही नहीं की। हाँ, एक दफा इच्छा अवश्य हुई थी। मगर, पूरे वस्त्र उतार कर आइने के सामने निवर्सन होने के पहले ही वह ख़ुद को एकदम मूर्ख लगी थी। बाद इसके उसने ख़ुद को टटोलते हुए पूछा था कि वह अपनी तमाम अन्य हमउम्र सहेलियों की तरह कोई भी हरक़त करते समय ख़ुद को ऐसा असहज क्यों अनुभव करने लगती है ? हाँ, क्यों.....? हाँ, क्यों...?
और अब भी नहाते समय वह कुछ ऐसा ही सोच रही थी। ख़ुद को तथा ख़ुद के परिवेश को ले कर। सोचते-सोचते अचानक ख़याल आया कि वह काफी देर से बाथरूम में बंद है। वह खड़ी हो गयी। ज़ल्दी-ज़ल्दी बदन पोंछा, और नल को वैसा ही टपकता हुआ छोड़ कर, कपड़े पहन बाहर आ गयी। फिर बाथरूम की सिटकनी सरका कर वह ज्यों ही मुड़ी, सामने पापा थे। और पापा की निगाहें, अमि पर। मन की कोमल-कोमल सतहों पर सकुचाहट व भय का मिलाजुला पनीलापन फैल गया, जिसमें शनैः शनैः उसे अपना वज़ूद डूबता-सा जान पड़ा।
अक्सर, ऐसा ही होता है, पापा के सामने पड़ने पर। उनका ठेठ-रोआबदार, संजीदा-संजीदा चेहरा देख कर अमि हमेशा से ही सहमी-सहमी रही है। इसीलिए पापा की उपस्थिति के घनीभूत क्षणों में अमि चाहती रही है कि जितना भी ज़ल्दी हो सके, वह उनकी आँखों से ओझल हो जाये।
पापा रुके हुए थे।
रुके हुए और चुप। अमि को लगा, यह शायद पापा के बोलने के पहले की ख़तरनाक चुप्पी है, जो टूटते ही अपने साथ बहुत हौले-से एकदम ठण्डे, लेकिन तीखे लगनेवाले शब्द छोड़ेगी, जो उसे भीतर ही भीतर कई दिनों तक रूलाते रहेंगे। उसे लग रहा था, पापा कुछ कमेंट करेंगे। उसके इतनी देर तक बाथरूम में बन्द रहने पर। मसलन-’अमि! तुम्हें दिन-ब-दिन यह क्या होता जा रहा है ?’ मगर, वे कुछ कहे बग़ैर ही आगे बढ़ गये। अमि आश्वस्त हो गयी।
गीले पंजों के बल लम्बे-लम्बे डग भरती हुई, अपने कमरे में चढ़ आयी। अमि को हमेशा अपने कमरे में आकर एक विचित्र-सा साहस आ जाता है। कमरे की सपाट और सफेद दीवारें, छत, यहाँ तक कि कमरे की हर चीज़, उसे अपनी और एकदम अपनी, अकेले की लगती है। इन दीवारों व चीज़ों के बीच घिर कर अमि ने हमेशा ख़ुद को बहुत सुरक्षित अनुभव किया है। और अब आतंक के कुछ कँटीले-लमहों के बाद वह अपने कमरे में थी।
और अब भी नहाते समय वह कुछ ऐसा ही सोच रही थी। ख़ुद को तथा ख़ुद के परिवेश को ले कर। सोचते-सोचते अचानक ख़याल आया कि वह काफी देर से बाथरूम में बंद है। वह खड़ी हो गयी। ज़ल्दी-ज़ल्दी बदन पोंछा, और नल को वैसा ही टपकता हुआ छोड़ कर, कपड़े पहन बाहर आ गयी। फिर बाथरूम की सिटकनी सरका कर वह ज्यों ही मुड़ी, सामने पापा थे। और पापा की निगाहें, अमि पर। मन की कोमल-कोमल सतहों पर सकुचाहट व भय का मिलाजुला पनीलापन फैल गया, जिसमें शनैः शनैः उसे अपना वज़ूद डूबता-सा जान पड़ा।
अक्सर, ऐसा ही होता है, पापा के सामने पड़ने पर। उनका ठेठ-रोआबदार, संजीदा-संजीदा चेहरा देख कर अमि हमेशा से ही सहमी-सहमी रही है। इसीलिए पापा की उपस्थिति के घनीभूत क्षणों में अमि चाहती रही है कि जितना भी ज़ल्दी हो सके, वह उनकी आँखों से ओझल हो जाये।
पापा रुके हुए थे।
रुके हुए और चुप। अमि को लगा, यह शायद पापा के बोलने के पहले की ख़तरनाक चुप्पी है, जो टूटते ही अपने साथ बहुत हौले-से एकदम ठण्डे, लेकिन तीखे लगनेवाले शब्द छोड़ेगी, जो उसे भीतर ही भीतर कई दिनों तक रूलाते रहेंगे। उसे लग रहा था, पापा कुछ कमेंट करेंगे। उसके इतनी देर तक बाथरूम में बन्द रहने पर। मसलन-’अमि! तुम्हें दिन-ब-दिन यह क्या होता जा रहा है ?’ मगर, वे कुछ कहे बग़ैर ही आगे बढ़ गये। अमि आश्वस्त हो गयी।
गीले पंजों के बल लम्बे-लम्बे डग भरती हुई, अपने कमरे में चढ़ आयी। अमि को हमेशा अपने कमरे में आकर एक विचित्र-सा साहस आ जाता है। कमरे की सपाट और सफेद दीवारें, छत, यहाँ तक कि कमरे की हर चीज़, उसे अपनी और एकदम अपनी, अकेले की लगती है। इन दीवारों व चीज़ों के बीच घिर कर अमि ने हमेशा ख़ुद को बहुत सुरक्षित अनुभव किया है। और अब आतंक के कुछ कँटीले-लमहों के बाद वह अपने कमरे में थी।
(क्रमश:>>>>>)
आभार इस प्रस्तुति के लिए.
जवाब देंहटाएंis kahaani ka asli maja to lekhak ko likhe jaane ke liye aur typing karne wale ko type karte samay us kahaani ko padha kar. to mai hi wo khush kismat hoo jisne ek chuppi cross par chadhi ko type kiya hai yaani script type ki hai. chunki prabhu joshiji pen se writing kar mujhe hi dete hai aur mai unki hendwriting ko computer writing kar email karta hoo. is kahaani ko hindi bharat par dene ke liye kavitaji ko hardik hardik badhai. aur is kahaani me pita ki bhumika itni hard hai ki uski ladki apne pita ke saamne apni marji se kuch bhi nahi kar paati hai yahaan tak ki uske bhai ko bhi dekhane nahi ja paati hai. aur bhi bahut kuchch hai. chunki kavita ka shirshak hi saari kahaani ko kah deta hai. padhen aur anand len aur kuch seekhe ki pita ki is bhumika me kahin aap to nahi hai. itne hard. dhanyavad kavitaji
जवाब देंहटाएंmaine apne comments me ek chuppi cross par chadhi ko kavita likh diya hai. khshama karen kahani hai.
जवाब देंहटाएंआप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, इसके लिए साधुवाद। हिन्दुस्तानी एकेडेमी से जुड़कर हिन्दी के उन्नयन में अपना सक्रिय सहयोग करें।
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सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्रयम्बके गौरि नारायणी नमोस्तुते॥
शारदीय नवरात्र में माँ दुर्गा की कृपा से आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण हों। हार्दिक शुभकामना!
(हिन्दुस्तानी एकेडेमी)
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