४ (अंतिम भाग )
(अंक १, अंक २, अंक ३ से आगे )
इसी जग जाहिर बदनामी की बौद्धिक-चिंता करते हुए देश को बचाने के लिए कुछ प्रथमश्रेणी के बुद्धिजीवियों के रेवड़, जिसमें अमत्र्य से और विक्रम सेठ भी शामिल है, ने भारत सरकार को लगभग धिक्कार के मुहावरे में लिखित प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि समलैंगिको को भारत में संवैधानिक रूप से समान व सम्मानजनक दर्जा कब और कैसे मिलेगा ? उन्हें इस विकट समस्या ने संगठित होने में विलम्ब नहीं करने दिया । लेकिन, भूख, गरीबी, साम्प्रदायिकता, समान-वितरण-प्रणाली समान-शालेय शिक्षा जैसे इससे बड़े और कहीं अधिक विकराल प्रश्नों पर अभी उन्हें तक एकत्र नहीं होने दिया है । वे लैंगिक-अल्प संख्यकों (सेक्चुअल माॅइनाॅर्टी) के हित में अविलम्ब कूद पड़े । यहाँ तक कि संभोग रहित सैक्स की लत विकसित करने के लिए ‘सैक्स टाॅय’ के लिए वे उपयुक्त जगह बनाना चाहते हैं, इसमंे हमारे कल्याणकारी राज्य की भूमिका साझेदारी की है । यों भी सरकार भाषा को भूगोल से भूगोल को भूख से और भूख को भूख से बदलने के खेल में काफी दक्षता हासिल किए हुए है ।
दोस्तो, यह राज्य द्वारा परिवार के सुनियोजित विखण्डन की प्रायोजित मुहिम है, जबकि परिवार प्राथमिक इकाई है और वह पहले बना है, राज्य बाद में। जिसके बाद ‘स्वयंसेवा’ के जरिए से सेक्स की परनिर्भरता से मुक्ति तो मिलेगी ही साथ ही साथ अमेरिकन सिंगल्स की तर्ज़ पर भारतीय पुरुष और भारतीय स्त्री बिना सहवास किए इच्छित यौनरंजन हासिल कर सकेंगे । उनका वैज्ञानिक तर्क यह भी है कि इससे भारत में सेक्स-टाॅय और समलैंगिकता के प्रचलन से बढ़ती आबादी पर रोक लगाने में कारगर कामयाबी मिल सकेगी । उन्हें छातीकूट अफसोस इस बात पर भी है कि भारत में माता-पिताओं के साथ लड़कियाँ भी उन्हीं की तरह मूर्ख हैं, जो शादी करके गृहस्थी बसाने का सपना देखने से बाज नहीं आ रही हैं । ऐसा चलता रहा तो उन्हें यहाँ सेक्स-टाॅय के धंधे में बरकत बनाना मुश्किल होगी । जबकि, सेक्स खिलौनों का कारखाना भिलाई के इस्पात के कारखाने से ज्यादा रेवेन्यु देगा । यह लचीला स्टील है । इसमें उत्खनन के बजाए सीधा उत्पादन ही होता है।
दूसरे शब्दों में कहें कि सेक्स खिलौनों का व्यवसाय विकसित राट्रों के समाजों की मेट्रो-सेक्चुअल्टी है, जिसे देसी-आदत का रूप देना है । जी हां, मूलतः कार्पोरेटी-इथिक्स का प्रतिमानीकरण करना है, जो ‘सामुदायिक-नैतिक ध्वंस’ में ही अपना अस्तित्व बनाता है । सरकार का इसमें सार्थक सहयोग है ।
हिन्दी में महानगरीय बुद्धिजीवियों की ऊंची नस्ल में सेक्समुक्ति को लेकर जो प्रफुल्लता बरामद हो रही है - वह स्त्री स्वातंत्र्य के आशावाद की बाजार-निर्मित अवधारणा है, जिसे ये माथे पर उठाये ठुमका लगा रहे हैं । देहमुक्ति में स्त्रीमुक्ति का मुगालता बाँटने वाले ये मुगालताप्रसाद, हकीकत में देखा जाय तो उन्हीं आकाओं की आॅफिशियल आवाज हैं, जिसको वे लम्पटई की सैद्धान्तिकी के शिल्प में प्रस्तुते हुए प्रचारित कर रहे हैं । ये उसी वैचारिक जूठन की जुगाली कर रहे हैं । ये नए ज्ञानग्रस्त रोगी है, जिनका अब कोई उपचार नहीं है । उन्हें लाइलाज (अनट्रीटेड) ही रखना पड़ेगा । खुद को आवश्यकता से अधिक प्रतिभाग्रस्त मानने के मर्ज़ के पीछे प्रायोजित प्रदूषण है । इसीलिए टेलिविजन चैनलों में स्टूडियो की नकली रौशनी में रंगे हुए होठों वाली लड़कियाँ दांत निपोरते हुए किशोर-किशोरियाँ से पूछती हैं - आप सेक्स शिक्षा के पक्ष में है कि नहीं ?... आपने विवाहपूर्व ‘सेक्समेट’ बनाने में आपको कोई हिचक तो नहीं ?... क्या आपने कभी हस्तमैथुन या अपने समवयस्क के साथ पारस्परिक यौनिक दुलार किया है ?.... क्या आप अभी भी सेक्स टेबू की शिकार हैं ?
कुल मिलाकर, बहुत जल्दी सर्वेक्षण आने वाला है, जो खुशी को छुपाने का अभिनय करता हुआ बतायेगा कि हमारे यहाँ किशोरवय की गर्भवती कन्याओं (टीन एज़ प्रेगनेंसी) का ग्राफ अब अमेरिकी समाज की तरह काफी ऊंचा उठ गया है । सेन्सेक्स और सेक्स दोनों की दर की ऊंचाई प्रगति का प्रतिमान बनने वाली है । क्योंकि भारत में कण्डोम-क्रांति की सफलता के लिए यह जरूरी है । इस क्रांति में मीडिया, फिल्म, मनोरंजन व्यवसाय, खानपान, वस्त्र व्यवसाय आदि शीतयुद्ध के दौर में समाजवादी समाज की अवधारणा को नष्ट करने के लिए एक शब्द चलाया गया था- लाइफ स्टाइल। जी हां, वह शब्द अब अखबारों के परिशिष्ट में बदल गया है । महेश भट्टीय शैली की फिल्में धड़ल्ले से इसीलिए कारोबार कर रही है, क्योंकि अब फिल्म के दृश्य में आंखें नहीं कच्छे गीले होने चाहिए । आखिर अंग्रेजी में इसे ही तो कहते हैं, बड़ी आंत से ब्रेन का काम लेना । इसी धंधे का लालच उन्हें तर्क देता है कि हिन्दुस्तान में पोर्नोग्राफी को वैध बना दिया जाना चाहिए ।
अंत में सचाई यही है कि दोस्तों हमारे नब्जों में गुलाम रक्त प्रवाहित है और इसलिए हमारा मौलिक चिन्तन कुन्द हो चुका है । अतः हम हाथ जोड़कर क्षमा चाहते हैं कि हमारा बौद्धिक-पुरुषार्थ निथर गया है - नतीज़न उसके अभाव में हम भारतीयों से कोई विचार-क्रान्ति संभव ही नहीं है, हम तो अब केवल कण्डोम-क्रान्ति को ही संभव कर सकेंगे । क्योंकि, मीडिया की मदद लेकर बढ़ रहे, नये बाजार ने हमें वर्जनाओं के कच्छे उतारने के लिए उतावला बना दिया है । हम बेसब्र और बेकाबू हैं, वह सब हासिल करने के लिए, जिसे सरकारी साझेदारी में उत्पादित किया जा रहा है । बहरहाल, धन्यवाद उनका और उनके एड्स का कि उन्होंने कामांगों पर कफ्र्यू लगाये रखने वाले चिंदे से मुक्ति के लिए वैज्ञानिकता का तिनका दे दिया, जिसकी आड़ ही हमारे लिए पर्याप्त है । उन्नीस सौ सैंतालीस की आज़ादी तो सिर्फ एक राजनैतिक झुनझुना था, जिसे गांधी ने एक सिम्पल-स्टिक को हाथ में लेकर, (जिसे हिन्दी के भदेसपन में लाठी कहते हैं) सम्भव कर दिया था । यह बिना खड़ग और बिना ढाल वाली मात्र लाठी के सहारे उपलब्ध करा दी गई आज़ादी थी, जबकि असली आज़ादी को तो हम अब एन्जाॅय कर पायेंगे - गांधी की लाठी नहीं - ज्वॉय स्टिक के सहारे । जिंदाबाद ज्वॉय स्टिक !
अंत में इसलिए भाई-बहनो, इस माल का बाज़ार बढ़ाओ और भारत में असली भूमण्डलीकरण और असली आज़ादी इसी के जरिए आयेगी । संस्कृति-संस्कृति चिल्लाने वाले आंखें मूंद, औंधे मुँह सोये पड़े हैं । इसलिए खरीदो और बेचो सेक्स टॉय ।
..........(अंक १, अंक २, अंक ३ से आगे )
कण्डोम प्रमोशन कार्यक्रम : सांस्कृतिक धूर्तता का वैज्ञानिक मुखौटा
- प्रभु जोशी
- प्रभु जोशी
इसी जग जाहिर बदनामी की बौद्धिक-चिंता करते हुए देश को बचाने के लिए कुछ प्रथमश्रेणी के बुद्धिजीवियों के रेवड़, जिसमें अमत्र्य से और विक्रम सेठ भी शामिल है, ने भारत सरकार को लगभग धिक्कार के मुहावरे में लिखित प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था कि समलैंगिको को भारत में संवैधानिक रूप से समान व सम्मानजनक दर्जा कब और कैसे मिलेगा ? उन्हें इस विकट समस्या ने संगठित होने में विलम्ब नहीं करने दिया । लेकिन, भूख, गरीबी, साम्प्रदायिकता, समान-वितरण-प्रणाली समान-शालेय शिक्षा जैसे इससे बड़े और कहीं अधिक विकराल प्रश्नों पर अभी उन्हें तक एकत्र नहीं होने दिया है । वे लैंगिक-अल्प संख्यकों (सेक्चुअल माॅइनाॅर्टी) के हित में अविलम्ब कूद पड़े । यहाँ तक कि संभोग रहित सैक्स की लत विकसित करने के लिए ‘सैक्स टाॅय’ के लिए वे उपयुक्त जगह बनाना चाहते हैं, इसमंे हमारे कल्याणकारी राज्य की भूमिका साझेदारी की है । यों भी सरकार भाषा को भूगोल से भूगोल को भूख से और भूख को भूख से बदलने के खेल में काफी दक्षता हासिल किए हुए है ।
दोस्तो, यह राज्य द्वारा परिवार के सुनियोजित विखण्डन की प्रायोजित मुहिम है, जबकि परिवार प्राथमिक इकाई है और वह पहले बना है, राज्य बाद में। जिसके बाद ‘स्वयंसेवा’ के जरिए से सेक्स की परनिर्भरता से मुक्ति तो मिलेगी ही साथ ही साथ अमेरिकन सिंगल्स की तर्ज़ पर भारतीय पुरुष और भारतीय स्त्री बिना सहवास किए इच्छित यौनरंजन हासिल कर सकेंगे । उनका वैज्ञानिक तर्क यह भी है कि इससे भारत में सेक्स-टाॅय और समलैंगिकता के प्रचलन से बढ़ती आबादी पर रोक लगाने में कारगर कामयाबी मिल सकेगी । उन्हें छातीकूट अफसोस इस बात पर भी है कि भारत में माता-पिताओं के साथ लड़कियाँ भी उन्हीं की तरह मूर्ख हैं, जो शादी करके गृहस्थी बसाने का सपना देखने से बाज नहीं आ रही हैं । ऐसा चलता रहा तो उन्हें यहाँ सेक्स-टाॅय के धंधे में बरकत बनाना मुश्किल होगी । जबकि, सेक्स खिलौनों का कारखाना भिलाई के इस्पात के कारखाने से ज्यादा रेवेन्यु देगा । यह लचीला स्टील है । इसमें उत्खनन के बजाए सीधा उत्पादन ही होता है।
दूसरे शब्दों में कहें कि सेक्स खिलौनों का व्यवसाय विकसित राट्रों के समाजों की मेट्रो-सेक्चुअल्टी है, जिसे देसी-आदत का रूप देना है । जी हां, मूलतः कार्पोरेटी-इथिक्स का प्रतिमानीकरण करना है, जो ‘सामुदायिक-नैतिक ध्वंस’ में ही अपना अस्तित्व बनाता है । सरकार का इसमें सार्थक सहयोग है ।
हिन्दी में महानगरीय बुद्धिजीवियों की ऊंची नस्ल में सेक्समुक्ति को लेकर जो प्रफुल्लता बरामद हो रही है - वह स्त्री स्वातंत्र्य के आशावाद की बाजार-निर्मित अवधारणा है, जिसे ये माथे पर उठाये ठुमका लगा रहे हैं । देहमुक्ति में स्त्रीमुक्ति का मुगालता बाँटने वाले ये मुगालताप्रसाद, हकीकत में देखा जाय तो उन्हीं आकाओं की आॅफिशियल आवाज हैं, जिसको वे लम्पटई की सैद्धान्तिकी के शिल्प में प्रस्तुते हुए प्रचारित कर रहे हैं । ये उसी वैचारिक जूठन की जुगाली कर रहे हैं । ये नए ज्ञानग्रस्त रोगी है, जिनका अब कोई उपचार नहीं है । उन्हें लाइलाज (अनट्रीटेड) ही रखना पड़ेगा । खुद को आवश्यकता से अधिक प्रतिभाग्रस्त मानने के मर्ज़ के पीछे प्रायोजित प्रदूषण है । इसीलिए टेलिविजन चैनलों में स्टूडियो की नकली रौशनी में रंगे हुए होठों वाली लड़कियाँ दांत निपोरते हुए किशोर-किशोरियाँ से पूछती हैं - आप सेक्स शिक्षा के पक्ष में है कि नहीं ?... आपने विवाहपूर्व ‘सेक्समेट’ बनाने में आपको कोई हिचक तो नहीं ?... क्या आपने कभी हस्तमैथुन या अपने समवयस्क के साथ पारस्परिक यौनिक दुलार किया है ?.... क्या आप अभी भी सेक्स टेबू की शिकार हैं ?
कुल मिलाकर, बहुत जल्दी सर्वेक्षण आने वाला है, जो खुशी को छुपाने का अभिनय करता हुआ बतायेगा कि हमारे यहाँ किशोरवय की गर्भवती कन्याओं (टीन एज़ प्रेगनेंसी) का ग्राफ अब अमेरिकी समाज की तरह काफी ऊंचा उठ गया है । सेन्सेक्स और सेक्स दोनों की दर की ऊंचाई प्रगति का प्रतिमान बनने वाली है । क्योंकि भारत में कण्डोम-क्रांति की सफलता के लिए यह जरूरी है । इस क्रांति में मीडिया, फिल्म, मनोरंजन व्यवसाय, खानपान, वस्त्र व्यवसाय आदि शीतयुद्ध के दौर में समाजवादी समाज की अवधारणा को नष्ट करने के लिए एक शब्द चलाया गया था- लाइफ स्टाइल। जी हां, वह शब्द अब अखबारों के परिशिष्ट में बदल गया है । महेश भट्टीय शैली की फिल्में धड़ल्ले से इसीलिए कारोबार कर रही है, क्योंकि अब फिल्म के दृश्य में आंखें नहीं कच्छे गीले होने चाहिए । आखिर अंग्रेजी में इसे ही तो कहते हैं, बड़ी आंत से ब्रेन का काम लेना । इसी धंधे का लालच उन्हें तर्क देता है कि हिन्दुस्तान में पोर्नोग्राफी को वैध बना दिया जाना चाहिए ।
अंत में सचाई यही है कि दोस्तों हमारे नब्जों में गुलाम रक्त प्रवाहित है और इसलिए हमारा मौलिक चिन्तन कुन्द हो चुका है । अतः हम हाथ जोड़कर क्षमा चाहते हैं कि हमारा बौद्धिक-पुरुषार्थ निथर गया है - नतीज़न उसके अभाव में हम भारतीयों से कोई विचार-क्रान्ति संभव ही नहीं है, हम तो अब केवल कण्डोम-क्रान्ति को ही संभव कर सकेंगे । क्योंकि, मीडिया की मदद लेकर बढ़ रहे, नये बाजार ने हमें वर्जनाओं के कच्छे उतारने के लिए उतावला बना दिया है । हम बेसब्र और बेकाबू हैं, वह सब हासिल करने के लिए, जिसे सरकारी साझेदारी में उत्पादित किया जा रहा है । बहरहाल, धन्यवाद उनका और उनके एड्स का कि उन्होंने कामांगों पर कफ्र्यू लगाये रखने वाले चिंदे से मुक्ति के लिए वैज्ञानिकता का तिनका दे दिया, जिसकी आड़ ही हमारे लिए पर्याप्त है । उन्नीस सौ सैंतालीस की आज़ादी तो सिर्फ एक राजनैतिक झुनझुना था, जिसे गांधी ने एक सिम्पल-स्टिक को हाथ में लेकर, (जिसे हिन्दी के भदेसपन में लाठी कहते हैं) सम्भव कर दिया था । यह बिना खड़ग और बिना ढाल वाली मात्र लाठी के सहारे उपलब्ध करा दी गई आज़ादी थी, जबकि असली आज़ादी को तो हम अब एन्जाॅय कर पायेंगे - गांधी की लाठी नहीं - ज्वॉय स्टिक के सहारे । जिंदाबाद ज्वॉय स्टिक !
अंत में इसलिए भाई-बहनो, इस माल का बाज़ार बढ़ाओ और भारत में असली भूमण्डलीकरण और असली आज़ादी इसी के जरिए आयेगी । संस्कृति-संस्कृति चिल्लाने वाले आंखें मूंद, औंधे मुँह सोये पड़े हैं । इसलिए खरीदो और बेचो सेक्स टॉय ।
समग्र, 4, संवाद नगर,
नवलखा, इन्दौर (म.प्र.) 452 001
bahut sahi kataksh hai aapka ab bgandhi ki lathi yaha nahi chalegi joy stik chalegi
जवाब देंहटाएंसेक्स का taboo समाप्त हो रहा है ये अवश्य है की यहाँ कुछ ज्यादा ही तेजी है पचाना मुस्किल है लेकिन गले के निचे तो उतारना ही पडेगा
जवाब देंहटाएंsaarthak baat hai
जवाब देंहटाएंaapne sahi likha hai.
जवाब देंहटाएंbahut achcha vang hai. ye ve log hote hain jinki budhdhi kamar ke neeche hoti hai. afsos ye hai ki humain ab aise he logo ko chun na parta hai.
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