हास्यपरक कालजयी तेलुगु उपन्यास : ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’* -ऋषभ देव शर्मा

पुस्तक चर्चा



हास्यपरक
कालजयी तेलुगु उपन्यास : ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’*

ऋषभ देव शर्मा


भारतीय साहित्य अत्यंत वैविध्यपूर्ण है। विभिन्न भारतीय भाषाओं की विभिन्न विधाओं में जहाँ अनेक प्रकार की समान प्रवृत्तियाँ मिलती हैं वहीं हर भाषा साहित्य का अपना वैशिष्ट्य भी है। यह एक रोचक तथ्य है कि उन्नसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक चरण में नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के संदेश को प्रचारित-प्रसारित करने के लिए भारतीय लेखकों ने हास्य-व्यंग्य का सटीक सामाजिक उपयोग किया है। हिंदी में भारतेंदु से लेकर बालमुकुन्द गुप्त तक यद्यपि इस प्रकार के हास्य-व्यंग्यपरक लेखन की परंपरा रही है परंतु इस काल में कोई हास्य-व्यंग्यपरक उपन्यास संभवतः नहीं रचा गया। ऐसी स्थिति में यह जानकारी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि तेलुगु भाषा में हास्य-व्यंग्यपरक कथा साहित्य की संपन्न परंपरा होती है। इसका श्रेय आंध्र जाति की हास्य प्रियता को दिया जा सकता है जो उसके शिष्ट साहित्य, लोक साहित्य, मुक्तक पद और कहावतों में परिलक्षित है। कंदुकूरि वीरेलिंगम पंतुलु, चिलकमर्ति लक्ष्मीनरसिंहम, पानुगंटि लक्ष्मी नरसिंग राव, गुरजाडा वेंकट अप्पाराव मुनिमाणिक्यम नरसिंहा राव और चिंता दीक्षितुलु के नाम इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। परंतु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है मोक्कपाटि नरसिंह शास्त्री (1892-1974) का नाम जिन्होंने अपने 1924-25 में प्रकाषित दीर्घकाय हास्य-व्यंग्यपरक उपन्यासबैरिस्टर पार्वतीशमके बल पर तेलुगु साहित्य में अद्वितीय ख्याति अर्जित की। बैरिस्टर पार्वतीशम और हास्य रचना मानो एक दूसरे के पर्याय है। 90 वर्षीय वरिष्ठ हिंदी सेवी डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा (1918) ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक इस ऐतिहासिक महत्व की कृति को खोज कर इसका हिंदी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसके लिए वे निश्चय ही अभिनंदनीय है। आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी ने इस अनुवाद को प्रकाशित करके वास्तव में भारतीय साहित्य को संपन्न और समृद्ध करने की दिशा में अपना योगदान दिया है।

‘बैरिस्टर पार्वतीशम’ ने हास्य की सृष्टि करने के लिए उपन्यासकार ने विडंबना को घटनाओं, विकृत रूप, विचित्र चेष्टाओं, वचोनैपुण्य तथा मूर्खतापूर्ण क्रियाकलाप की योजना की है। विकृत भाषा और अस्तव्यस्तता का भी इसके लिए सहारा लिया गया है। यह रचना 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में भारतीय साहित्य में प्रवर्तित गद्य काल की मुख्य प्रवृत्ति अर्थात् राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक नवचेतना से ओतप्रोत है। इसे आंध्र प्रदेश में उभरे ‘आंध्रोदयम’ आंदोलन की एक औपन्यासिक परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है। इसका नायक पार्वतीशम आंध्र के युवकों का प्रतिनिधि बनकर घर से निकलता है। वह बहुत भोला-भाला जीव है और हमेशा सभी को अपने ऊपर हँसने के अवसर उपलब्ध कराता रहता है। बड़ों के भाषण सुन-सुनकर उसके मन में देशोद्धार की भावना जागती है परंतु क्या करना चाहिए, इस संबंध में वह कुछ निर्णय नहीं कर पाता। वह ज्यादा पढ़-लिखा नहीं था और दूसरों से पूछने में उसे हेठी महसूस होती थी फिर भी वह कुछ ऐसा करना चाहता था जो बड़े-बड़े नेता भी नहीं कर पाए थे। अपनी इसी कामना से प्रेरित होकर पार्वतीशम देशोद्धार के निमित्त बैरिस्टर बनने के लिए घर से निकल पड़ता है। जिसने रेल नहीं देखी थी, जिससे जहाज का नहीं पता था, वह अपने गाँव से चलकर मद्रास, कोलंबो, पैरिस - जाने कहाँ-कहाँ की यात्राएँ करता है और अपने विचित्र अनुभवों के आत्मकथात्मक वर्णन से पाठकों को लोटपोट कर देता है। अपनी इसी शक्ति के कारण पार्वतीशम तेलुगु साहित्य का अमर पात्र बन गया है। एक अशिक्षित भारतीय युवक का जब पाश्चात्य सभ्यता से आमना-सामना होता है तो हास्य के अनेक विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव उभरने लगते है। लोक जीवन में घटित दैनंदिन घटनाओं को इस प्रकार लेखक ने व्यंग्य का आधार बनाने में सफलता प्राप्त हुई है।

तीन भागों में संयोजित इस हास्य उपन्यास के प्रथम खंड में 14, द्वितीय खंड में 26 तथा तृतीय खंड में 22 अध्याय है, हर अध्याय के अंत में एक उपसंहार भी है। बड़े आकार की इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 600 से ऊपर है। अनुवादक ने बताया है कि इस कालजयी और क्लासिक श्रेणी की औपन्यासिक कृति के अनुवाद को उन्होंने प्रो. नामवर सिंह जैसे कई प्रकांड पंडितों को दिखाकर उनके परामर्शानुसार इसे प्रकाशित कराया है। इतना ही नहीं प्रो. पी. आदेश्वर राव ने इस अनुवाद का विधिवत् अवलोकन भी किया है। इसी का यह परिणाम है कि अनुवाद पढ़ते समय हिंदी की मौलिक रचना पढ़ने जैसा आनंद प्राप्त होता है।

यह जानना रोचक होगा कि आरंभ में इस उपन्यास के प्रथम भाग के प्रकाशन पर तेलुगु समीक्षा जगत में मिली जुली प्रतिक्रिया हुई थी। भारती पत्रिका के संपादक ने तो यहाँ तक लिख दिया था कि यह उपन्यास सिल्ली (ैपससल) है क्योंकि पार्वतीशम जैसा असभ्य इस जमाने में कोई नहीं होगा, इसलिए ऐसे अभूत कल्पनाओं से रचना करके संसार को खुश करने का प्रयत्न केवल मूर्खता है। इसके बावजूद यह ऐतिहासिक तथ्य है कि पार्वतीशम का पात्र ब्रह्मश्री कुरुगंटि सीताराम भट्टाचार्य की इस भविष्यवाणी पर खरा उतरा है कि यह पात्र नव्य साहित्य में स्थिर रहेगा। कहा जाता है कि ऐसा कोई व्यक्ति आंध्र प्रदेश में नहीं होगा जो इस पात्र को नहीं जानता। इस उपन्यास का फिल्मीकरण भी हो चुका है। ‘तेलुगु में हास्य’ (तेलुगुलो हास्यमु) शीर्षक ग्रंथ में मुट्नूरि संगमेषम ने ठीक ही कहा है कि पार्वतीशम वही युवा है जो लंदन जाकर बैरिस्टर पास हो जाने की लालसा और उत्साह रखने वाला है। वह आंध्र सनानत ब्राह्मण परिवार का है। उस काल में अंग्रेज़ी-शिक्षा के साथ-साथ प्राप्त होने वाले अनेक प्रकार के सुगुणों का अभाव है इसमें। आधुनिक समस्त सभ्यता उसके लिए अपरिचित है। कभी रेल की यात्रा भी नहीं करने वाले इस व्यक्ति को, घर से निकलने से लेकर कदम-कदम पर आने वाली प्रतिकूल परिस्थितियाँ हर बार उसको मूर्ख बनाकर, सारा संसार उल्टा हुआ जैसा समझने को बाध्य करती है। रेल में उसका बरताव, मद्रास में अनेक कठिनाइयों का सामना करना, स्टीमर में सही गई बाधाएँ, नए प्रदेशों में होने वाली असुविधाएँ - इन सबको पढ़ते ही बनता है, लिखा नहीं जा सकता। इतनी हँसी हँसाकर कि हँसते-हँसते पेट में बल पड़े। एक घटना से बढ़कर दूसरी घटना का हास्यप्रद चित्रण करके इस लेखक ने तेलुगु में बेजोड़ हास्य रचना के रूप में इस कथा को हमें दिया। जब कोई वस्तु जिसे हम नहीं जानते, हमें मिलती तो उसे पकड़ने का मार्ग और उसमें सिर-पैर न जानकर हम कभी न कभी हँसी-मजाक के शिकार बनकर चिंतित होते हैं। इसी सूत्र ने इस पार्वतीशम की कथा में आदि से अंत तक गूँथा जाकर हास्य का पोषण किया। असहज रूप में ही सब कुछ की कल्पना करने पर भी अंत को अत्यंत सहज ही मालूम होता रहेगा। एक भूल दूसरी भूल का कारण होने से विकृतियाँ एक दूसरे से गूँथकर लपेटने के जैसे दिखाकर कल्पना के परे के मोड की ओर खींच ले जाती हैं। पात्र स्वभावतः मूर्ख नहीं है, सन्निवेश उसे मूर्ख बनाकर हँसी-मजाक उड़ाते हैं। इस पार्वतीशम से बढ़कर हँसी-मजाक का शिकार बनने की परिस्थितियों का हम ने भी अपने जीवन में कभी न कभी अनुभव किया और उनको जान लिया। इसीलिए इस पात्र पर हमारा ममकार, गौरव और सहानुभूति वगैरह होते हैं। यह हमारी राष्ट्रीय संपत्ति के रूप में बना हुआ पात्र है।

हमारा यह राष्ट्रीय पात्र जब जला उपला, तालपत्र, कंथा, लाल शाल, गुलाबी रेशमी दुपट्टा और गेंदे के रंग का संदूक लेकर चलता है तो लोग उसे मूर्ख समझ कर हँसते हैं। वह अनजाने में महिला-टोपी खरीद लेता है और जब सब हँसते है तो भोलेपन से कह देता है कि उसने इसे किसी सहेली के लिए खरीदा है। सीधासादा पार्वतीशम यदि चाकू और काँटे का प्रयोग नहीं जानता और कालीन को गन्दा होने के बचाने के लिए मोमकी पालिश वाले लकडी के टुकडों पर चलने की कोशिश करता है या हेयर कटिंग सेलून को देखकर भ्रमित होता है तो लोग तो हँसेंगे ही। वह एक ऐसा कालजयी नायक है जिसमें काव्य शास्त्रीय धीरोदात्त महानायकत्व नहीं है, खलनायक या प्रतिनायक वह बिलकुल नहीं है। जैसा कि लेखक ने स्वयं कहा है, भले ही उसमें और कुछ न हो वह हम जैसा मानव है। हम में जो मानवता है वह उसमें भी है। हम ही वह है, वही हम है, इसीलिए हम में से हर एक में कहीं न कहीं एक पार्वतीशम छिपा है। शायद यही कारण है कि चाहे कोई कितना भी हँसे पार्वतीशम कुछ नहीं कहता और अपनी नादानियों से तथाकथित आधुनिक सभ्यता की बखिया उधेड़ता रहता है - यही उसकी सफलता है।

इसमें संदेह नहीं कि साहित्यिक अनुवाद सांस्कृतिक समन्वय का अत्यंत कारगर माध्यम है। इस उपन्यास के द्वारा भी यह सदुद्देश्य संपन्न होता है। अनुवादक ने अत्यंत परिश्रमपूर्वक ऐसे प्रयोगों की पुस्तक के अंत में सूची दी है जो तेलुगु संस्कृति की परंपरा से गृहीत हैं तथा जिनकी व्याख्या अपेक्षित है। पाठक यदि उपन्यास पढ़ने से पहले परिशिष्ट में दिए गए प्रांतीय प्रयोगों के विवरण को पढ़ लें तो कथा रस के आस्वादन में सुकरता होगी। उदाहरण के लिए ‘घर का नाम’ की व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि आंध्र प्रांत में हर एक व्यक्ति के नाम के पहले उसके पूर्वज जिस गाँव में रहते थे उस गाँव के नाम के आधार पर या उनके व्यवसाय के आधार पर नाम जोड़ा जाता है। वह पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आता है जैसे उत्तर भारत में द्विवेदी, त्रिवेदी या चतुर्वेदी आदि नाम के अंत में जोड़ा जाता है।

इसी प्रकार हिंदी पाठक के लिए ‘अष्टावधानम’ के संबंध में यह विवरण अत्यंत उपादेय हो सकता है कि यह तेलुगु साहित्य और संस्कृति की एक विषिष्ट प्रक्रिया है। अवधान करने वाले को अवधानी कहते हैं। आठ पृच्छक आठ अलग-अलग विषयों को जो निम्नलिखित प्रकार हैं, अवधानी के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं जिनके समाधान अवधानी अंत में सबको सही ढंग से देता है। इसके लिए धारणा शक्ति की आवश्यकता होती है। अष्टावधानम के आठ विषय हैं - 1. समस्यापूरण, 2. निषेधाक्षरी, 3. व्यस्ताक्षरी, 4. दत्ताक्षरी, 5. अप्रस्तुत प्रशंसा, 6. आकाश पुराण, 7. घंटियों को गिनना और 8. शतरंज।

कुल मिलाकर इसमें संदेह नहीं कि ‘बैरिस्टर पार्वतीशम’ जैसी कालजयी कृति को हिंदी में उपलब्ध कराकर डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा ने तेलुगु और हिंदी दोनों भाषा समाजों का बड़ा उपकार किया है। यह कृति तेलुगु की भाँति हिंदी के पाठकों का भी हृदयहार बने, यही कामना है।


* बैरिस्टर पार्वतीशम (तेलुगु उपन्यास)/
मूल: मोक्कपाटि नरसिंह शास्त्री
अनुवाद: डॉ. एम.बी.वी.आई.आर. शर्मा
आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी,
वेस्ट विंग, 8वीं मंजिल, गगन विहार,
मोजमजाही रोड, हैदराबाद-500 001
2007/
200 रु./
पृष्ठ 608 (सजिल्द)।

2 टिप्‍पणियां:

  1. हिन्दी दिवस पर हार्दिक शुभकामना
    गर्व से कहे हिन्दी हमारी भाषा है
    जय हिन्दी

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  2. बैरिस्टर पार्वतीशम से परिचित कराने का आभार। सुन्दर आलेख...। बधाई।

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