पहले पूनम जी का वह (रोमन) संदेश व नीचे उसके उत्तर में लिखा मेरा (देवनागरी) संदेश ज्यों का त्यों यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत कर रही हूँ । आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
-क.वा.
(Q)
Kavita ji,
Kripya humari is shanka ka nivaaran karen ki "dalit" shabd ka
arth kya hai aur yeh shabd sangya hai athva visheshan.
uttaraakaankshi,
Poonam
(Ans.)
प्रिय पूनम जी.
आप के संदेश का उत्तर विलंब से दे रही हूँ, खेद है.
जहाँ तक मेरे ज्ञान की परिधि है (और अर्थ के स्तर पर) दलित वह है जिसका दमन या दलन हुआ है. इसका जाति अथवा वर्ग -विशेष से कोई सम्बन्ध नहीं है. इन अर्थों मे वह स्त्री भी दलित है जिसका निरंतर शोषण होता आया है और आज के बुजुर्ग भी दलित हैं जो सामाजिक परिवर्तन की त्रासदी में अपनी ही संतान के हाथों दमन का शिकार हो रहे हैं. निरंतर आत्महत्या को धकेले जाते किसान भी दलित हैं जो सूदखोर धनपतियों के दमन चक्र से ग्रसे हैं या वे महिलाएँ जो वैधव्य की मार खेलती सर मुंडाए आश्रमों मे निर्वासित जीवन काट देती हैं ; ऐसे ही एक वस्त्र में या नंगे/ भुखमरी से जीने वाला और किसी भी तथाकथित (जन्मन:) जाति में जन्मा किंतु शोषण व अत्याचार या दमनचक्र का शिकार हर व्यक्ति (और प्राणीमात्र ) दलित कहाएगा. इन अर्थों में यह विशेषण ही कहा जाना चाहिए, जैसे दलित महिलाएँ, दलित वर्ग, दलित समाज, दलित बस्ती आदि आदि.
यह ध्यान रखने की बात है (व हमारा दुर्भाग्य है) कि प्रत्येक क्षेत्र में भारत की संचालक शक्तियाँ किन्हीं अन्य के संकेतों से संचालित होती हैं व सबकी निष्ठा व आस्था के केन्द्र देश के अतिरिक्त कहीं और हैं, या यों भी कहा जा सकता है कि सब की प्रतिबद्धताएँ किसी मंतव्य -विशेष के प्रति हैं. राजनीति करने वालों के तो एजेंडे में ही देश नहीं है. धर्म के नाम पर दुकानदारी करने वालों के लिए किसी नाम -विशेष पर ईमान लाना आवश्यक है. भितरघात करने वाले और बाहर से चोट पहुँचाने वालों के लिए सदा कोई न कोई वह वर्ग महत्वपूर्ण होता है, जिसकी प्रतिबद्धता उसके प्रतिबद्धता के आधार से जुड़ी हो.संस्कृति का नाम लेकर देश बचाने वालों ने भी सत्ता के संकेतों की कुटिलता में ढाल लिया स्वयं को.
कुल मिला कर स्थिति यह बन गयी है कि जो बिना किसी के झंडे (राजनीति या अध्यात्म के नाम पर प्रचलित छद्म के)या बैनर तले आए देश या संस्कृति की बात करता है, उसे भी अधिकतम मिलान होती मान्यताओं के आधार पर किसी झंडे -विशेष से जोड़ कर शेष सारी शक्तियाँ उसके विरोध में जुट जाती हैं कि आख़िर तुमने यह बात कही तो कही कैसे. यदि एक को पाठ पढाने चलें देश या दैशिक संस्कृति की मर्यादा का तो वह इसे अपने विरोधी झंडे वालों के कारस्तानी प्रमाणित करने में जी जान लगा देगा.
इसी का परिणाम हम निरंतर रूढ़ होते जा रहे शब्द व अर्थ और इनके समन्वय के रूप में देखते हैं, जहाँ संस्कृति का अर्थ है एक विशेष प्रकार के मानसिकता, जहाँ आधुनिकता का अर्थ है - प्रकार -विशेष के आचरण, जहाँ धर्म का अर्थ है मात्र पूजा- पद्धति, जहाँ प्रत्येक शब्द -विशेष तक को एक खांचे में बाँध कर उसके विविध अर्थों के लिए उसे ही निषिद्ध कर दिया गया है
यही स्थति दलित शब्द की है, जिसे जी-भर निचोड़ने में कोई भी कोर - कसर नहीं छोड़ना चाहता.
वस्तुत: जब हम भाषा को बचाने की बात कहते हैं तो उसमें संस्कृति की सुरक्षा का भाव अन्तर्निहित होता है; क्योंकि भाषा स्वयं में मात्र एक उपादान -भर है जो संस्कृति को वहन करने का प्रयोजन साधती है. जब हम शब्द, भाषा या लिपि के डिजिटलाइजेशन की माँग करते हैं या यत्न करते हैं तो वस्तुत: आगामी पीढ़ियों के लिए अपनी संस्कृति को सर्वथा सुरक्षित करने/रखने की प्रक्रिया की पहल कर रहे होते हैं. सभ्यता व संस्कृति को गरिया कर भाषा व लिपि के क्षरण के प्रति चिंता प्रकट करना निर्मूल व निरर्थक है, या स्वयं को रेखांकित कर लेने वाली प्रक्रिया का हास्यास्पद अंग -भर.
इसी प्रक्रिया का प्रतिफल है कि दलित -विशेष का ठप्पा राजनीति प्रेरित सभ्यता का अंश -भर हो कर रह गया है, जो एक नई प्रकार की प्रतिरोधी (?) कुंठा का निर्माण करने की युक्ति बन चुका है. इसे हतभाग्य मान लेते हैं देश का, भारत का. संस्कृति का और देशवासियों का ( मेरी दृष्टि में हतभाग्य की अपेक्षा क्लीवता अधिक उपयुक्त है ).
धन्यवाद व आभार प्रकट करना चाहती हूँ आपका कि आपके प्रश्न ने मुझे कुछ लिखने के लिए प्रेरित किया.
शुभकामनाओं सहित
कविता वाचक्नवी
बहुत अच्छा विवेचन किया है आपने. बधाई.
जवाब देंहटाएंकाश आपकी परिभाषा और सोच का लेश मात्र अंश दलित राजनीति के कथित पुरोधाओं के मन मस्तिष्क में स्थान पा लेता।
जवाब देंहटाएंसुन्दर, और व्यवस्थित विवेचना का आभार...।