(१६)
मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज
नवजागरणकालीन मणिपुरी कविता
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हिजम इरावत सिंह के लेखन और आंदोलन के साथ मणिपुर में जो नवजागरण का युग प्रारम्भ हुआ, उसमें स्वतन्त्रता और भाषा-प्रेम जागृत करने में साहित्यकारों ने बडा योगदान दिया। नवजागरण की इस पहल पर प्रकाश डालते हैं डॉ. देवराज:
"मणिपुर साहित्य में नवजागरण का पहला स्वर स्व-भाषा और जातीय साहित्य सम्बन्धी चेतना के रूप में प्रकट हुआ। कवि कमल ने मणिपुरी भाषा की दुर्दशा पर आँसू बहाते हुए कहा:
जान गया माँ, तुम ही हो निर्धन पुष्प
भारत की इस वाटिका में
देखो माँ तुम्हारे अज्ञानी पुत्र
न चढा़ जल चरणों पर तुम्हारे
प्रयासरत हैं खोदने को पोखर मरुभूमि में
[लमाबम कमल]
"यहाँ इस तथ्य पर ध्यान जाना चाहिए कि कवि ने भारत को विभिन्न भाषाओं की वाटिका के रूप में कल्पित किया है और यह माना है कि उस वाटिका में अन्य समस्त पुष्प श्रीसम्पन्न हैं, केवल मणिपुरी भाषा का पुष्प ही श्रीहीन और निर्धन दिखाई दे रहा है।
"एक और कवि अशाङ्बम मीनकेतन सिंह कहते हैं :
दूसरों की गोद में बडी़ होनेवाली
पराई भाषा पर आश्रित
माँ की शक्ल न पहचाननेवाली
संतान है बेचारी
नवजागरणकाल में स्व-भाषा प्रेम हिलोरें लेने लगा। अपनी मातृभाषा को लम्बे समय बाद पुनःगौरव प्रदान करने का श्रेय महाराज चूडा़चाँद को दिया जाता है। उन्होंने ३० अप्रेल, १९२५ को राजमहल में मणिपुरी भाषा में नाटक खेलने की व्यवस्था की। नवजागरणकालीन कवि इस घटना से फूले नहीं समाए:
बहुत दिन पश्चात
पधारी है माँ मैतै चनु
मैतै साहित्य मन्दिर में
भरकर चँगेरी पुष्पों से
करें अर्पित माँ के चरणों में
[लमाबम कमल]
"इस विवरण से यह आसानी से समझा जा सकता है कि मणिपुरी समाज में भाषा और साहित्य सम्बन्धी चेतना-धारा पिछले युगों में ही अस्तित्व में आ गई थी। बंगला भाषा और लिपि के प्रभुत्व के काल में मणिपुरी भाषा की धारा समय की रेत के नीचे भले ही चली गई हों, किन्तु वह रुकी नहीं, नष्ट नहीं हुई, विरोधों और बाधाओं का सामना करते हुए धीरे-धीरे ही सही, आगे बढ़ती रही।
अनुगूँज भरो कोकिल तुम आ पर्वतीय घाटी में
आ बनाओ इस घाटी को निकुंज
बनाओ प्रवहमान सूखी धारा चन्द्रनदी की
आह्वान करो इस वन में वीणापाणि का
[लमाबम कमल]"
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हिजम इरावत सिंह के लेखन और आंदोलन के साथ मणिपुर में जो नवजागरण का युग प्रारम्भ हुआ, उसमें स्वतन्त्रता और भाषा-प्रेम जागृत करने में साहित्यकारों ने बडा योगदान दिया। नवजागरण की इस पहल पर प्रकाश डालते हैं डॉ. देवराज:
"मणिपुर साहित्य में नवजागरण का पहला स्वर स्व-भाषा और जातीय साहित्य सम्बन्धी चेतना के रूप में प्रकट हुआ। कवि कमल ने मणिपुरी भाषा की दुर्दशा पर आँसू बहाते हुए कहा:
जान गया माँ, तुम ही हो निर्धन पुष्प
भारत की इस वाटिका में
देखो माँ तुम्हारे अज्ञानी पुत्र
न चढा़ जल चरणों पर तुम्हारे
प्रयासरत हैं खोदने को पोखर मरुभूमि में
[लमाबम कमल]
"यहाँ इस तथ्य पर ध्यान जाना चाहिए कि कवि ने भारत को विभिन्न भाषाओं की वाटिका के रूप में कल्पित किया है और यह माना है कि उस वाटिका में अन्य समस्त पुष्प श्रीसम्पन्न हैं, केवल मणिपुरी भाषा का पुष्प ही श्रीहीन और निर्धन दिखाई दे रहा है।
"एक और कवि अशाङ्बम मीनकेतन सिंह कहते हैं :
दूसरों की गोद में बडी़ होनेवाली
पराई भाषा पर आश्रित
माँ की शक्ल न पहचाननेवाली
संतान है बेचारी
नवजागरणकाल में स्व-भाषा प्रेम हिलोरें लेने लगा। अपनी मातृभाषा को लम्बे समय बाद पुनःगौरव प्रदान करने का श्रेय महाराज चूडा़चाँद को दिया जाता है। उन्होंने ३० अप्रेल, १९२५ को राजमहल में मणिपुरी भाषा में नाटक खेलने की व्यवस्था की। नवजागरणकालीन कवि इस घटना से फूले नहीं समाए:
बहुत दिन पश्चात
पधारी है माँ मैतै चनु
मैतै साहित्य मन्दिर में
भरकर चँगेरी पुष्पों से
करें अर्पित माँ के चरणों में
[लमाबम कमल]
"इस विवरण से यह आसानी से समझा जा सकता है कि मणिपुरी समाज में भाषा और साहित्य सम्बन्धी चेतना-धारा पिछले युगों में ही अस्तित्व में आ गई थी। बंगला भाषा और लिपि के प्रभुत्व के काल में मणिपुरी भाषा की धारा समय की रेत के नीचे भले ही चली गई हों, किन्तु वह रुकी नहीं, नष्ट नहीं हुई, विरोधों और बाधाओं का सामना करते हुए धीरे-धीरे ही सही, आगे बढ़ती रही।
अनुगूँज भरो कोकिल तुम आ पर्वतीय घाटी में
आ बनाओ इस घाटी को निकुंज
बनाओ प्रवहमान सूखी धारा चन्द्रनदी की
आह्वान करो इस वन में वीणापाणि का
[लमाबम कमल]"
क्रमशः>>>
(प्रस्तुति :चंद्रमौलेश्वर प्रसाद)
(प्रस्तुति :चंद्रमौलेश्वर प्रसाद)
अरसे बाद आपको पढ़कर सुकून मिला। हिंदी सेवा के लिए आपको व सभी अहिंदी भाषी हिंदी सेवकों को मेरा नमन।
जवाब देंहटाएंबरसों बाद मणिपुरी भाषा के बारे में कुछ पढने को मिला, धन्यवाद!
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