आजादी के साथ आजादखयाली : अरुंधती राय
- राजकिशोर
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अंग्रेजी की एक सम्मानित बुद्धिजीवी महिला ने भारत को सलाह दी है कि वह कश्मीर से आजाद हो जाए। कश्मीर को भी उन्होंने ऐसी ही सलाह दी है कि उसे भारत से आजाद होने की जरूरत है। कश्मीरियों को उन्होंने वह सलाह दी है जो उनकी मांग रही है और आज ज्यादा है। जाहिर है, कश्मीरियों को उनकी इस सलाह की जरूरत नहीं थी। इसके लिए तो वे तीन दशकों से लड़ ही रहे हैं। तो यह कश्मीरियों को सलाह नहीं, बल्कि उनकी मांग से अपनी सहमति प्रगट करना है। इसका मतलब यह है कि उन्होंने कश्मीर की मांग मान ली है और भारत सरकार से आग्रह किया है कि वह भी कश्मीर की मांग मान ले। कुल मिला कर, सलाह भारत को है कि वह कश्मीर को आजाद कर दे। इतनी सीधी-सी बात इस जहीन महिला को इतना घुमा कर कहना पड़ा, तो इसका मतलब हम यही निकाल सकते हैं कि उन्हें अपने तर्क पर इतना भरोसा नहीं है कि कश्मीरियों की मांग को वे अपनी भी मांग बता सकें। अगर यह महिला अपने को भारत और कश्मीर दोनों से जुड़ा हुआ अनुभव करतीं, तो उनका निष्कर्ष इतना फ्लैट नहीं होता (माना कि धरती फ्लैट है, फिर भी) । जो व्यक्ति अन्य मामलों में बौद्धिक तीक्ष्णता का प्रदर्शन करता आया है और गहरी संवेदनशीलता का परिचय भी देता रहा है, वह अचानक मोटी अक्ल से काम चलाता दिखाई पड़ने लगे, तो यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि वह खून-खराबा देख कर डर गया है और किसी भी कीमत पर शांति खरीदना चाहता है। काश, इस पेचीदा दुनिया में शांति इतनी सस्ती होती।
इस ज्ञानवती-कलावती-सौंदर्यवती को भीड़ में कूद कर अपना पक्ष प्रगट करने की झक्की आदत रही है। वह अचानक गरीब के साथ जमीन पर बैठ जाती है, आदिवासी की झोपड़ी में घुस जाती है और भीख मांगनेवाले बच्चे को गोद में ले कर उसे आइसक्रीम खिला सकती है। जिस मामले में भी पक्ष-विपक्ष होता है, उसे अपना पक्ष नाटकीय ढंग से प्रगट करने का नशा है। यह और बात है कि वह भारत की किसी अपनी भाषा में नहीं लिखती, न लिखना चाहती है। दरअसल, वह अपने मूल्यवान (यमक साभिप्राय) लेखन के द्वारा भारत की कम पढ़ी-लिखी या किसी भारतीय भाषा में ज्यादा पढ़ी-लिखी जनता को सीधे संबोधित करना नहीं चाहती। इसमें है क्या -- न पैसा, न ख्याति। उसने यह काम मेधा पाटकर जैसे सीधे-भले लोगों के लिए छोड़ दिया है। लेकिन वह सोचती और लिखती हमेशा गरीब और वंचित लोगों के लिए है। इसके लिए अंग्रेजी जैसी धनी (यमक साभिप्राय) भाषा जरूरी है। यह वही भाषा है, जिसमें वि·ा बैंक, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत के वामपंथी विद्वान और नेता तथा आला दर्जे के संप्रदायवादी सोचते और लिखते हैं। अंग्रेजी ने दुनिया भर में और भारत में एक ऐसा संयुक्त मोर्चा बनाया हुआ है, जिसमें गरीब और निरीह लोगों को छोड़ कर सबके लिए जगह है।
इसीलिए अंग्रेजी के प्रति प्रतिबद्ध इस भारतीय भद्रमहिला को अंग्रेजी के एक साप्ताहिक में लिख कर अपना यह मत देने में कठिनाई नहीं हुई कि भारत और कश्मीर, दोनों एक-दूसरे से आजाद हो जाएं, इसी में इन दोनों का और इसलिए दुनिया का भला है। हमें बहुत ताज्जुब है कि हर निर्णायक मौके पर अपनी राय शरीर की भाषा में प्रगट करने की शौकीन और आदी यह बेधड़क महिला कश्मीर में रहते हुए उन जुलूसों और भीड़ों में कूद क्यों नहीं पड़ी जो आजादी से कम पर राजी नहीं थे। आखिर इस लेखिका के अनुसार, यह एक लोक मांग है और शहरों से गांवों में फैल गई है, जिसके बहाव को सेना भी रोक नहीं पा रही है। मुझे बहुत खुशी होती अगर यह विश्व -प्रसिद्ध लेखिका भी कश्मीरियों की स्वत:स्फूर्त भीड़ के साथ मिल कर इस तरह के नारों में अपनी सुंदर आवाज मिला देती -- पाकिस्तान से रिश्ता क्या ? ला इल्लाह इल्ला लाह। आजादी का मतलब क्या? ला इलाहा इल्ला लाह। कश्मीर की मंडी ! रावलपिंडी! भावावेग पर काम करनेवाली इस महिला ने लेकिन ऐसा नहीं किया। हमारा बुद्धिजीवी वर्ग खूब जानता है कि कहां सिर्फ मुंह खोलना चाहिए, कहां सिर्फ कलम चलानी चाहिए और कहां कुछ भी करने की जरूरत नहीं है। भारत की निंदा करने से यश मिलेगा, कश्मीरियों की राय का समर्थक होने के बावजूद उनके बीच खड़ा हो कर अपना मत रखने से जेल हो सकती है। एकाध दिन के लिए जेल जाने में कोई हर्ज नहीं है। उससे स्टोरी बनती है। पर राजद्रोह के अभियोग में जेल जाने पर पता नहीं कब घर आने का मौका मिले। वे और लोग थे, जो जेल को घर कहते थे।
इस विदुषी से कई-एक सवाल पूछने को मन करता है। मैम, आपने ही तो हमें बताया था कि भारत की निर्वाचित सरकार भारत की प्रतिनिधि सरकार नहीं है। वह तो देहाती, देशी और अंतरराष्ट्रीय तीनों ब्रांड के, मुट्ठी भर अमीरों की सरकार है। यह सरकार उन्हीं के लिए बिजली पैदा करती है और उन्हीं के लिए बिजली खर्च करती है। हम इस सही स्थापना पर शुरू से ही सिर हिलाते रहे हैं। मैम ने हमें बताया कि भारत कोई एक देश नहीं है -- इसके भीतर कई-कई देश और उपदेश हैं। हमें भी यह दिखाई पड़ता है और हम उनकी यह बात मानते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले, मैम ने भारत में व्याप्त चौतरफी अशांति का डरावना नक्शा खींचते हुए एक बहुत ही मर्मस्पर्शी जुमला लिखा था -- मित्रो, यह गृह युद्ध है। उनकी इस सूझ पर हम उछल पड़े थे। माशाअल्लाह, कितना बड़ा सच कह दिया! यह तो वही चीज है जिसे हम रोज देखते हैं, पर इतनी सफाई से महसूस नहीं कर पा रहे थे।
राजनीति-प्रिय लोगों को भूल जाने का शौक होता है। लगता है, मैम अपनी ही स्थापनाओं को भूल चुकी हैं। नहीं तो वे यह नहीं लिखतीं कि भारत को कश्मीर से आजाद हो जाना चाहिए। किस भारत को कश्मीर से आजाद हो जाना चाहिए -- मुट्ठी भर अमीरों के भारत को, मुट्ठी भर मध्य वर्ग के भारत को या करोड़ों निरीह किसानों, मजदूरों, बेकारों के भारत को ? किस भारत ने कश्मीर में इतनी बड़ी सेना भेज रखी है? क्या यह वही भारत है, जो हमारी इस तेज-तर्रार लेखिका को जान की तरह प्यारा है? मनमोहन सिंह और शिवराज पाटिल अगर उस भारत के नागरिक नहीं हैं जिसमें इस महिला का ह्मदय बसता है, तो वे इसकी सलाह क्यों मान लेंगे? एक पशु-विशेष को सुबह-शाम यह सलाह दी जाए कि वह अपनी दुम सीधी रखे, तो क्या यह बुद्धिमानी होगी?
मैम, जरा यह भी तो बताइए कि कश्मीर आप किसे कह रही हैं? जम्मू का इलाका कश्मीर है या नहीं है? क्या जम्मू के लोग भी भारत से आजाद होना चाहते हैं? क्या भारत को उनसे भी अलग हो जाना चाहिए? क्या लद्दाख को भी भारत से अलग हो जाने की जरूरत है? क्या भारत को लद्दाख से भी आजाद हो जाना चाहिए? राज्य का नाम जम्मू और कश्मीर है। लेकिन हमारी इस विदुषी ने एक बार भी पूरे राज्य को एक इकाई की तरह पेश नहीं किया है। उसके लिए जम्मू और कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर है और कश्मीर का मतलब कश्मीर डिविजन के वे जिले हैं जहां की बहुत बड़ी आबादी भारत से आजादी चाहती है। आजादी बेशक प्यारी चीज है। इसके लिए सिर भी कटाया जा सकता है। लेकिन जिन्हें असली कश्मीरी कहा जा रहा है, क्या वे वास्तव में आजादी चाहते हैं? जो सही में आजाद होना चाहते हैं, वे दूसरों की आजादी की कद्र करते हैं। इन असली कश्मीरियों ने अपने बीच सदियों से बसे हुए कश्मीरी पंडितों को क्यों अपने से 'आजाद' हो जाने दिया? माना कि यह आतंकवादियों का काम था, पर आतंकवादियों की संख्या क्या कश्मीरी मुसलमानों से ज्यादा थी? माननीय लेखिका मानती हैं कि कश्मीर में आजादी की मांग अब सिर्फ आतंकवादियों की मांग नहीं रह गई है। यह लोक मांग बन गई है। ये निहत्थे लोग हैं और सेना के भय से मुक्त हो चुके हैं। मुबारक हो। मुबारक हो। पर आजादी चाहनेवाले रावलपिंडी की ओर क्यों दौड़े जा रहे थे? क्या यह वही इलाका है, जहां आजादी की देवी रहती है? क्या रावलपिंडी के लोगों को भी खूंखार पाकिस्तान से आजादी नहीं चाहिए? पाकिस्तान सरकार को तो किसी विद्वान या विदुषी ने अभी तक यह सलाह नहीं दी है कि उसे बलूचिस्तान से आजाद हो जाना चाहिए। क्या अंतरराष्ट्रीयतावादियों की सारी सलाह भारत के लिए ही है? पाकिस्तान को सलाह देने में मुश्किल क्यों होती है?
मैम, आप भारत से अधिक भारत सरकार को जानती हैं। आप यह भी जानती हैं कि जिस तरह की सरकार भारत में आती-जाती रहती है, वह स्वयं इस देश के लिए एक समस्या है। जो खुद एक बहुत बड़ी समस्या है, वह किसी और समस्या का हल कैसे निकाल सकता है? क्या आप छाती पर हाथ रख कर कह सकती हैं कि यह सरकार किसी भी बड़ी समस्या का समाधान कर सकती है या समाधान करने के लिए उत्सुक है? यह वह सरकार है जिसके मंत्री और अफसर भारत के असंख्य गरीब और असहाय लोगों की छाती पर सवार हैं और इंजेक्शन लगा कर उसका खून निकाल रहे हैं। यह सरकार जब तक हमारी छाती से नहीं हटती, मेरा मतलब है, जब तक उसे हटाया नहीं जाता, क्योंकि वह खुद क्योंकर हटेगी, तब तक वह कश्मीर की छाती से कैसे हट सकती है? तो कश्मीर की आजादी तभी संभव होगी जब भारत आजाद हो। 1977 में हमने दूसरी आजादी की बात की। अब हमें तीसरी और चौथी आजादी की बात करनी चाहिए।
इसी तरह, कश्मीर भी तभी असली आजादी का जायका ले सकेगा जब वह आजाद भारत का हिस्सा बनेगा। अभी उसकी गुलामियां भारतीय जनता की गुलामियों का ही एक कतरा है। 1947 के बाद से कश्मीर के जितने लोग सेना, अर्धसैनिक बलों, पुलिस और आतंकवादियों की गोली से मर चुके हैं, उससे कई गुना ज्यादा लोग शेष भारत में भूख और कुपोषण से, बाढ़ और सूखे से, सांप्रदायिक हमलों से, गुंडों-बदमाशों के हाथ से, चिकित्सा-योग्य बीमारियों का इलाज न हो पाने से, साफ पानी और सुरक्षित प्रसव सुविधाओं के अभाव में मर चुके हैं। तो ऐसी सरकारों के रहते हुए, जो अपनी अश्लील अमीरी के बावजूद, गांवों के गरीब परिवारों को साल में आठ-दस हजार रुपए (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) से ज्यादा का आश्वासन नहीं देना चाहतीं, कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि कश्मीर समस्या का संतोषजनक समाधान हो जाएगा? सिरदर्द तेज होता जा रहा है, तो ऑपरेशन करके सिर को धड़ से और धड़ को सिर से अलग कर दिया जाए, यह नुस्खा बतानेवालों को न सिर से कोई मतलब है, न धड़ से। उनके लिए तो हर समस्या एक पकौड़ी है जिसमें मिर्ची जितनी तेज हो उतना ही ज्यादा स्वाद पैदा होगा। अल्ला बचाए ऐसी आजादखयाली से, जो सिर्फ दुख का भूगोल जानती है, उसका इतिहास नहीं।
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इस विदुषी से कई-एक सवाल पूछने को मन करता है। मैम, आपने ही तो हमें बताया था कि भारत की निर्वाचित सरकार भारत की प्रतिनिधि सरकार नहीं है। वह तो देहाती, देशी और अंतरराष्ट्रीय तीनों ब्रांड के, मुट्ठी भर अमीरों की सरकार है। यह सरकार उन्हीं के लिए बिजली पैदा करती है और उन्हीं के लिए बिजली खर्च करती है। हम इस सही स्थापना पर शुरू से ही सिर हिलाते रहे हैं। मैम ने हमें बताया कि भारत कोई एक देश नहीं है -- इसके भीतर कई-कई देश और उपदेश हैं। हमें भी यह दिखाई पड़ता है और हम उनकी यह बात मानते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले, मैम ने भारत में व्याप्त चौतरफी अशांति का डरावना नक्शा खींचते हुए एक बहुत ही मर्मस्पर्शी जुमला लिखा था -- मित्रो, यह गृह युद्ध है। उनकी इस सूझ पर हम उछल पड़े थे। माशाअल्लाह, कितना बड़ा सच कह दिया! यह तो वही चीज है जिसे हम रोज देखते हैं, पर इतनी सफाई से महसूस नहीं कर पा रहे थे।
राजनीति-प्रिय लोगों को भूल जाने का शौक होता है। लगता है, मैम अपनी ही स्थापनाओं को भूल चुकी हैं। नहीं तो वे यह नहीं लिखतीं कि भारत को कश्मीर से आजाद हो जाना चाहिए। किस भारत को कश्मीर से आजाद हो जाना चाहिए -- मुट्ठी भर अमीरों के भारत को, मुट्ठी भर मध्य वर्ग के भारत को या करोड़ों निरीह किसानों, मजदूरों, बेकारों के भारत को ? किस भारत ने कश्मीर में इतनी बड़ी सेना भेज रखी है? क्या यह वही भारत है, जो हमारी इस तेज-तर्रार लेखिका को जान की तरह प्यारा है? मनमोहन सिंह और शिवराज पाटिल अगर उस भारत के नागरिक नहीं हैं जिसमें इस महिला का ह्मदय बसता है, तो वे इसकी सलाह क्यों मान लेंगे? एक पशु-विशेष को सुबह-शाम यह सलाह दी जाए कि वह अपनी दुम सीधी रखे, तो क्या यह बुद्धिमानी होगी?
मैम, जरा यह भी तो बताइए कि कश्मीर आप किसे कह रही हैं? जम्मू का इलाका कश्मीर है या नहीं है? क्या जम्मू के लोग भी भारत से आजाद होना चाहते हैं? क्या भारत को उनसे भी अलग हो जाना चाहिए? क्या लद्दाख को भी भारत से अलग हो जाने की जरूरत है? क्या भारत को लद्दाख से भी आजाद हो जाना चाहिए? राज्य का नाम जम्मू और कश्मीर है। लेकिन हमारी इस विदुषी ने एक बार भी पूरे राज्य को एक इकाई की तरह पेश नहीं किया है। उसके लिए जम्मू और कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर है और कश्मीर का मतलब कश्मीर डिविजन के वे जिले हैं जहां की बहुत बड़ी आबादी भारत से आजादी चाहती है। आजादी बेशक प्यारी चीज है। इसके लिए सिर भी कटाया जा सकता है। लेकिन जिन्हें असली कश्मीरी कहा जा रहा है, क्या वे वास्तव में आजादी चाहते हैं? जो सही में आजाद होना चाहते हैं, वे दूसरों की आजादी की कद्र करते हैं। इन असली कश्मीरियों ने अपने बीच सदियों से बसे हुए कश्मीरी पंडितों को क्यों अपने से 'आजाद' हो जाने दिया? माना कि यह आतंकवादियों का काम था, पर आतंकवादियों की संख्या क्या कश्मीरी मुसलमानों से ज्यादा थी? माननीय लेखिका मानती हैं कि कश्मीर में आजादी की मांग अब सिर्फ आतंकवादियों की मांग नहीं रह गई है। यह लोक मांग बन गई है। ये निहत्थे लोग हैं और सेना के भय से मुक्त हो चुके हैं। मुबारक हो। मुबारक हो। पर आजादी चाहनेवाले रावलपिंडी की ओर क्यों दौड़े जा रहे थे? क्या यह वही इलाका है, जहां आजादी की देवी रहती है? क्या रावलपिंडी के लोगों को भी खूंखार पाकिस्तान से आजादी नहीं चाहिए? पाकिस्तान सरकार को तो किसी विद्वान या विदुषी ने अभी तक यह सलाह नहीं दी है कि उसे बलूचिस्तान से आजाद हो जाना चाहिए। क्या अंतरराष्ट्रीयतावादियों की सारी सलाह भारत के लिए ही है? पाकिस्तान को सलाह देने में मुश्किल क्यों होती है?
मैम, आप भारत से अधिक भारत सरकार को जानती हैं। आप यह भी जानती हैं कि जिस तरह की सरकार भारत में आती-जाती रहती है, वह स्वयं इस देश के लिए एक समस्या है। जो खुद एक बहुत बड़ी समस्या है, वह किसी और समस्या का हल कैसे निकाल सकता है? क्या आप छाती पर हाथ रख कर कह सकती हैं कि यह सरकार किसी भी बड़ी समस्या का समाधान कर सकती है या समाधान करने के लिए उत्सुक है? यह वह सरकार है जिसके मंत्री और अफसर भारत के असंख्य गरीब और असहाय लोगों की छाती पर सवार हैं और इंजेक्शन लगा कर उसका खून निकाल रहे हैं। यह सरकार जब तक हमारी छाती से नहीं हटती, मेरा मतलब है, जब तक उसे हटाया नहीं जाता, क्योंकि वह खुद क्योंकर हटेगी, तब तक वह कश्मीर की छाती से कैसे हट सकती है? तो कश्मीर की आजादी तभी संभव होगी जब भारत आजाद हो। 1977 में हमने दूसरी आजादी की बात की। अब हमें तीसरी और चौथी आजादी की बात करनी चाहिए।
इसी तरह, कश्मीर भी तभी असली आजादी का जायका ले सकेगा जब वह आजाद भारत का हिस्सा बनेगा। अभी उसकी गुलामियां भारतीय जनता की गुलामियों का ही एक कतरा है। 1947 के बाद से कश्मीर के जितने लोग सेना, अर्धसैनिक बलों, पुलिस और आतंकवादियों की गोली से मर चुके हैं, उससे कई गुना ज्यादा लोग शेष भारत में भूख और कुपोषण से, बाढ़ और सूखे से, सांप्रदायिक हमलों से, गुंडों-बदमाशों के हाथ से, चिकित्सा-योग्य बीमारियों का इलाज न हो पाने से, साफ पानी और सुरक्षित प्रसव सुविधाओं के अभाव में मर चुके हैं। तो ऐसी सरकारों के रहते हुए, जो अपनी अश्लील अमीरी के बावजूद, गांवों के गरीब परिवारों को साल में आठ-दस हजार रुपए (राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) से ज्यादा का आश्वासन नहीं देना चाहतीं, कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि कश्मीर समस्या का संतोषजनक समाधान हो जाएगा? सिरदर्द तेज होता जा रहा है, तो ऑपरेशन करके सिर को धड़ से और धड़ को सिर से अलग कर दिया जाए, यह नुस्खा बतानेवालों को न सिर से कोई मतलब है, न धड़ से। उनके लिए तो हर समस्या एक पकौड़ी है जिसमें मिर्ची जितनी तेज हो उतना ही ज्यादा स्वाद पैदा होगा। अल्ला बचाए ऐसी आजादखयाली से, जो सिर्फ दुख का भूगोल जानती है, उसका इतिहास नहीं।
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