हिन्दी को बचाने की फिक्र
-राजकिशोर
उनसे असहमत होना और भी मुश्किल था जिनका मानना था कि हिन्दी अब मनुष्यों की नहीं, पशु-पक्षियों की भाषा होती जा रही है। जो जितना गरीब है, वह हिन्दी के उतना ही करीब है। जो भी आदमी तीन-चार हजार रुपए महीने से ज्यादा कमा रहा है, वह अपने बाल-बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेज रहा है। उत्तर प्रदेश की सर्वजनवादी सरकार और पश्चिम बंगाल की सर्वहारा-प्रिय सरकार सहित देश के सत्तरह राज्यों ने पहली कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी है। ये बच्चे जब बड़े होंगे, तो वर्नाकुलर भाषा और संस्कृति का त्याग कर अंग्रेजी की दुनिया में रहेंगे --- भले ही वहां भी दलित और ओबीसी ही रहें। तब हिन्दी बोलने, लिखने और पढ़ने-सुननेवाले नौजवान खोजने के लिए हमें दीपक ले कर चप्पे-चप्पे की जांच करनी होगी। सावधान भाइयो और बहनो, हिन्दी को बचाने का मौका यही है -- अभी नहीं तो कभी नहीं। दुश्मन ने हमारे मुहल्ले को चारों तरफ से घेर लिया है। मशालें और लाठियां ले कर निकल पड़ो। तब तक मैं कोशिश करता हूं कि कम से कम तीन करोड़ का फंड जमा हो जाए। मुश्किल तो है, पर हो जाएगा। मेरे संपर्क दूर-दूर तक हैं।
बेचारा मैं। आखिर में हालत यह हो गई कि न कुछ सुनाई पड़ रहा था, न कुछ सुनाई पड़ रहा था। कान सुन्न हो गए थे। पलकें मुंद गई थीं। मेरे मन से उस खूबसूरत बालक का धूसर और मलिन चेहरा हट ही नहीं रहा था जो मुझे भीकाजी कामा प्लेस के मोड़ पर रोज दिखाई देता है। वह उन करोड़ों बच्चों का सांसद था जो न कभी हिन्दी पढ़ेंगे न अंग्रेजी।
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-राजकिशोर
यह बढ़ाने का नहीं, बचाने का समय है। जो बढ़ रहा है, वह अपने आप बढ़ रहा है। उसके लिए किसी अपील या आह्वान की जरूरत नहीं है। जिसे बचाने की कोशिश करनी है या की जा रही है, उसके लिए अभियान चलाने की जरूरत होती है, जन संगठन बनाने की आवश्यकता महसूस होती है और पत्र-पत्रिकाओं में लिखना आवश्यक हो जाता है। बढ़ रहे हैं मॉल, सुपर बाजार, फ्लॉवर शो, ब्यूटी कंटेस्ट, मोबाइल, आईपॉड, लक्जरी कार, एअरपोर्ट और फूड कॉर्नर। बचाना है भाषाओं को, संस्कृति को, किताब को और अच्छे संगीत को। इसी का एक उपांग है हिन्दी को बचाना। इसके लिए ईस्वी सन 1960 से प्रयत्न जारी है। बनारस में छात्रों को मारधाड़ वाला आंदोलन करना पड़ा, हिन्दी प्रेमियों को अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन करने पड़े, 14 सितंबर के आसपास हिन्दी दिवस, हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवाड़ा आदि मनाना पड़ता है और भारत से बहुत दूर जा कर विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित करना होता है। वर्धा में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी वि·िाद्यालय तक खोलना पड़ गया और एक गैर-हिन्दी भाषी को उसका कुलपति बनाना पड़ा। हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को अंग्रेजी के साथ रोज हमबिस्तर होना पढ़ रहा है। फिर भी, हिन्दी है कि बचती दिखाई नहीं देती। कातिल उसके गले में रस्सी बांध कर उसे वधस्थल तक खींच कर ले जा रहे हैं और वह म्यां-म्या चिल्ला रही है। इस निरंतर चीख से विह्वल हो कर हिन्दी के श्रेष्ठतम लेखक और पत्रकार अपने बहुपठित स्तंभों में हिन्दी रक्षा के नारे को और तेज कर देते हैं। इसके समानांतर म्यां-म्यां का आसन्न मृत्यु विलाप मुखर से मुखरतर होता जाता है। इसका एक विपक्ष भी है। उसका दावा है, और यह दावा हर दूसरे हफ्ते हर तीसरे अखबार में दुहराया जाता है कि हिन्दी का मर्सिया पढ़ने वाले धोती प्रसाद हैं, उलूकचंद हैं और जहां तक समकालीन परिदृश्य का सवाल है, पूरे सूरदास हैं। वे यह देखने से इनकार करते हैं कि हिन्दी शिल्पा शेट्टी की लहरदार केशराशि की तरह चारों तरफ फैल रही है, पाठ¬ तथा दृश्य-श्रव्य माध्यमों में ज्यादा से ज्यादा स्थान ले रही है और भारत के भविष्य की भाषा बन रही है। बस जरूरत इस बात की है कि उसे उलू-उलू गाने से न रोका जाए ।
ऐसा ही एक आशा-निराशावादी सम्मेलन जवाहरलाल नेहरू वि·ाविद्यालय की हिन्दी इकाई की ओर से 21 और 22 अगस्त को हुआ। विषय बहुत ही यथार्थवादी था : हिन्दी का भविष्य -- भविष्य की हिन्दी। इस सुसंस्कृत आयोजन का श्रेय वि·विद्यालय के वरयाम सिंह, रणजीत साहा और देवेंद्र चौबे को है। दो दिनों के इस जीवंत सम्मेलन में हिन्दी का 50 प्रतिशत क्रीमी लेयर मौजूद था। दूसरी विशेषता यह थी कि लगभग पचास विद्यार्थी, जो हिन्दी में एमफिल, पीएचडी आदि कर रहे हैं, पहले सत्र से अंतिम सत्र तक बहुत ही उत्साह और जागरूकता के साथ उपस्थित रहे। कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने के लिए एनडी टीवी की सुंदर और सौम्य कार्यकर्ता अमृता राय भी कैमरा-व्यक्ति के साथ आर्इं। सभी वक्ताओं ने अपना-अपना उत्कृष्टतम भाषण प्रस्तुत किया। एक के बाद एक हुए व्याख्यानों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक वर्ग का कहना था, गिलास आधा नहीं, पूरा भरा है, बल्कि अब तो छलकने भी लगा है। दूसरे वर्ग का कहना था कि गिलास खाली है या भरा है, इस पर बहस करना फिजूल है, क्योंकि हमें तो गिलास ही अदृश्य होता हुआ दिखाई पड़ रहा है।
मैं दोनों दिन वहां मौजूद रहा और प्रत्येक वक्ता की बात पर गौर करता रहा। मेरी सहमति बॉलिंग करनेवालों और बैटिंग करनेवालों, दोनों के साथ थी। बेशक हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। जब प्रकाश चंद्रा, अरुण पुरी, प्रनय रॉय, रजत शर्मा और राजदीप सरदेसाई जैसे अंग्रेजी के वजनी लोग हिन्दी को अपनी गोद में बैठा कर दूध पिला रहे हैं, हर पांचवें घंटे नहला-धुला-सुखा रहे हैं और उसके लिए बाजार में उपलब्ध बेहतर से बेहतर टॉनिक खरीद रहे हैं, तो हिन्दी को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है? जब हिन्दी अखबारों की बिक्री करोड़ों में बताई जा रही हो और हिन्दी की नसों में अंग्रेजी का इंजेक्शन लगा-लगा कर उसे पुष्ट, बलवान और आकर्षक बनाया जा रहा हो, ताकि वह लुटी-पिटी हिन्दी भाषी जनता के घर में, जिसकी 60 प्रतिशत आबादी बीपीएल है और अगले दस वर्षों में बीपीएल ही रहनेवाली है, दाखिल हो कर उसके आंसू पोंछ सके, सुंदरियों और सुंदराओं के आकर्षक चित्र दिखा कर उसकी आंखों में चमक ला सके और उसे इत्तला दे सके कि इस हफ्ते बाजार में कौन-कौन-सा नया उत्पाद आया है, तो हम यह मानने से कैसे इनकार कर सकते हैं कि हिन्दी का मंगल भारी है, बृहस्पति ऊंच पर है और शनि नीचतम स्थिति में पहुंच चुका है? वे हिन्दी द्रोही हैं जो यह अफवाह फैला रहे हैं कि हिन्दी आईसीयू में है और उसके शुभचिंतक उससे आखिरी मुलाकात करने एक-एक कर पहुंच रहे हैं।
ऐसा ही एक आशा-निराशावादी सम्मेलन जवाहरलाल नेहरू वि·ाविद्यालय की हिन्दी इकाई की ओर से 21 और 22 अगस्त को हुआ। विषय बहुत ही यथार्थवादी था : हिन्दी का भविष्य -- भविष्य की हिन्दी। इस सुसंस्कृत आयोजन का श्रेय वि·विद्यालय के वरयाम सिंह, रणजीत साहा और देवेंद्र चौबे को है। दो दिनों के इस जीवंत सम्मेलन में हिन्दी का 50 प्रतिशत क्रीमी लेयर मौजूद था। दूसरी विशेषता यह थी कि लगभग पचास विद्यार्थी, जो हिन्दी में एमफिल, पीएचडी आदि कर रहे हैं, पहले सत्र से अंतिम सत्र तक बहुत ही उत्साह और जागरूकता के साथ उपस्थित रहे। कार्यक्रम की रिपोर्टिंग करने के लिए एनडी टीवी की सुंदर और सौम्य कार्यकर्ता अमृता राय भी कैमरा-व्यक्ति के साथ आर्इं। सभी वक्ताओं ने अपना-अपना उत्कृष्टतम भाषण प्रस्तुत किया। एक के बाद एक हुए व्याख्यानों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक वर्ग का कहना था, गिलास आधा नहीं, पूरा भरा है, बल्कि अब तो छलकने भी लगा है। दूसरे वर्ग का कहना था कि गिलास खाली है या भरा है, इस पर बहस करना फिजूल है, क्योंकि हमें तो गिलास ही अदृश्य होता हुआ दिखाई पड़ रहा है।
मैं दोनों दिन वहां मौजूद रहा और प्रत्येक वक्ता की बात पर गौर करता रहा। मेरी सहमति बॉलिंग करनेवालों और बैटिंग करनेवालों, दोनों के साथ थी। बेशक हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है। जब प्रकाश चंद्रा, अरुण पुरी, प्रनय रॉय, रजत शर्मा और राजदीप सरदेसाई जैसे अंग्रेजी के वजनी लोग हिन्दी को अपनी गोद में बैठा कर दूध पिला रहे हैं, हर पांचवें घंटे नहला-धुला-सुखा रहे हैं और उसके लिए बाजार में उपलब्ध बेहतर से बेहतर टॉनिक खरीद रहे हैं, तो हिन्दी को आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है? जब हिन्दी अखबारों की बिक्री करोड़ों में बताई जा रही हो और हिन्दी की नसों में अंग्रेजी का इंजेक्शन लगा-लगा कर उसे पुष्ट, बलवान और आकर्षक बनाया जा रहा हो, ताकि वह लुटी-पिटी हिन्दी भाषी जनता के घर में, जिसकी 60 प्रतिशत आबादी बीपीएल है और अगले दस वर्षों में बीपीएल ही रहनेवाली है, दाखिल हो कर उसके आंसू पोंछ सके, सुंदरियों और सुंदराओं के आकर्षक चित्र दिखा कर उसकी आंखों में चमक ला सके और उसे इत्तला दे सके कि इस हफ्ते बाजार में कौन-कौन-सा नया उत्पाद आया है, तो हम यह मानने से कैसे इनकार कर सकते हैं कि हिन्दी का मंगल भारी है, बृहस्पति ऊंच पर है और शनि नीचतम स्थिति में पहुंच चुका है? वे हिन्दी द्रोही हैं जो यह अफवाह फैला रहे हैं कि हिन्दी आईसीयू में है और उसके शुभचिंतक उससे आखिरी मुलाकात करने एक-एक कर पहुंच रहे हैं।
उनसे असहमत होना और भी मुश्किल था जिनका मानना था कि हिन्दी अब मनुष्यों की नहीं, पशु-पक्षियों की भाषा होती जा रही है। जो जितना गरीब है, वह हिन्दी के उतना ही करीब है। जो भी आदमी तीन-चार हजार रुपए महीने से ज्यादा कमा रहा है, वह अपने बाल-बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में भेज रहा है। उत्तर प्रदेश की सर्वजनवादी सरकार और पश्चिम बंगाल की सर्वहारा-प्रिय सरकार सहित देश के सत्तरह राज्यों ने पहली कक्षा से अंग्रेजी की पढ़ाई अनिवार्य कर दी है। ये बच्चे जब बड़े होंगे, तो वर्नाकुलर भाषा और संस्कृति का त्याग कर अंग्रेजी की दुनिया में रहेंगे --- भले ही वहां भी दलित और ओबीसी ही रहें। तब हिन्दी बोलने, लिखने और पढ़ने-सुननेवाले नौजवान खोजने के लिए हमें दीपक ले कर चप्पे-चप्पे की जांच करनी होगी। सावधान भाइयो और बहनो, हिन्दी को बचाने का मौका यही है -- अभी नहीं तो कभी नहीं। दुश्मन ने हमारे मुहल्ले को चारों तरफ से घेर लिया है। मशालें और लाठियां ले कर निकल पड़ो। तब तक मैं कोशिश करता हूं कि कम से कम तीन करोड़ का फंड जमा हो जाए। मुश्किल तो है, पर हो जाएगा। मेरे संपर्क दूर-दूर तक हैं।
बेचारा मैं। आखिर में हालत यह हो गई कि न कुछ सुनाई पड़ रहा था, न कुछ सुनाई पड़ रहा था। कान सुन्न हो गए थे। पलकें मुंद गई थीं। मेरे मन से उस खूबसूरत बालक का धूसर और मलिन चेहरा हट ही नहीं रहा था जो मुझे भीकाजी कामा प्लेस के मोड़ पर रोज दिखाई देता है। वह उन करोड़ों बच्चों का सांसद था जो न कभी हिन्दी पढ़ेंगे न अंग्रेजी।
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जब हिन्दी की सेवा करने और उसके लिए चिन्ता करने के लिए इतने बड़े-बड़े धुरन्धर क्रियाशील हैं, तो बहुत घबराने की बात नहीं है। हिन्दूस्तान में हिन्दी के प्रसार को कोई रोक नहीं सकता है। संख्याबल इसके साथ है। यहाँ जिसे भी अपना बिजनेस करना है, उसे हिन्दी में आना पड़ेगा। कम्पनियाँ यह समझ चुकी हैं और इस दिशा में काम भी कर रही हैं। बस हमें आप सबका नैतिक समर्थन चाहिए।
जवाब देंहटाएंय़ह एक विचारोत्तेजक लेख है, भले ही इसे हल्का-फुल्का बनाने का प्रयास किया गया है।हमारे नेता हमारी अस्मिता को गिरवी रख चुके हैं। हमारी भाषा निश्चित तौर पर अंग्रेज़ी की बांदी बना दी गई है। अब तो शाही आदेश निकल ही चुका है कि वह बच्चा जो भीकाजी कामाजी प्लेस पर दिखाई देता है उसे प्रथम कक्षा से अंग्रेज़ी में ही भीका-कॉमा करना पडे़गा।
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