मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज
अंग्रेज़ों ने अपने पैर मणिपुर में जमा लिए और अपना एजेंट भी नियुक्त कर दिया। देश के अन्य भागों में स्वतन्त्रता की जो आग भड़क रही थी, उसकी गर्मी मणिपुर में भी महसूस की गई। प्राणों की आहुति देनेवाले आज़ादी के परवानों की गूँज मणिपुर से निकली पर इस भूभाग को अंग्रज़ी विशाल उपनिवेश का भाग बनने से नहीं रोक सकी। इस संग्राम का वर्णन डॉ. देवराज अपनी इस पुस्तक में इस प्रकार करते हैं :-
"अंग्रेज़ी सरकार का हित साधन करने के लिए असम का चीफ़ कमिश्नर क्विंटन बडी़ तैयारी के साथ २२ मार्च, १८९१ को इम्फ़ाल पहुँचा। इसके बाद की कहानी मणिपुर की स्वाधीनता के सूर्यास्त की कहानी है। मणिपुर के महान वीर पाओना ब्रजवासी ने अपने चार सौ योद्धा सैनिक साथियों के साथ २३ अप्रेल, १८९१ के दिन खोङ्जोम नदी के किनारेवाली पहाडी़ पर साधन-सम्पन्न अंग्रेज़ी सेना से लोहा लेते हुए वीरगति प्राप्त की, २७ अप्रेल, १८९१ को मणिपुर की राजधानी पर ‘यूनियन जैक’ फ़हराया गया, टीकेन्द्रजीत वीर सिंह एवं थाङ्गाल जनरल को गिरफ़्तार कर लिया गया, १३अगस्स्त १८९१ को इन दोनों इतिहास पुरुषों को इम्फ़ाल नगर के ‘पोलो ग्राउंड’ में फ़ाँसी पर लटका दिया गया और इसके बाद मणिपुर अंग्रेज़ों के विशाल उपनिवेशी साम्राज्यवाद का छोटा-सा भाग बन गया।"
"मणिपुर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटर में फ़ांसीवाली घटना इन शब्दों में दर्ज है - "पोलो ग्राउंड में टिकटी को सीधा खडा़ किया गया तथा निर्देशानुसार फ़ांसी लगाई गई। जहां तक दृष्टि जाती थी मैदान सफ़ेद वस्त्रधारी स्त्रियों से भरा था। राजा के समय यदि मृत्युदंड पाए किसी अपराधी के बचाव के लिए काफी संख्या में स्त्रियाँ आ जाती थीं तो प्रायः उसका प्राणदंड स्थगित हो जाता था। अब भी इसी आशा में हज़ारों की संख्या में स्त्रियां एकत्रित हो गईं कि शायद पुरानी परिपाटी को बरकरार रखा जाय। किंतु जैसे ही तख्ता गिरा और सेनापति और तांखुल जनरल परलोक सिधारे, एकत्रित जनसमुदाय के हृदय से गहरी कराह निकली। इस सब को ध्यान में रखते हुए इतिहासकारों का यह निष्कर्ष अनुचित नहीं है कि मणिपुर के सन्दर्भ में अंग्रेजों ने पूरी तरह ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’वाले सिद्धांत को व्यवहार में उतारा।" .........
(क्रमश:)
प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
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