मणिपुरी कविता- मेरी दृष्टि में - डॉ. देवराज [V]
पिछले अंक में हमने मणिपुर और मणिपुरी भाषा पर नज़र दौडा़ई थी। अब हमारी यात्रा मणिपुरी लोकगीतों और साहित्य की ओर बढ़ती है। डॉ. देवराज मणिपुरी साहित्येतिहास इस तरह बताते हैं:-
"साहित्य-सृजन परम्परा की खोज करते समय सबसे बडी़ बाधा यह है कि मणिपुरी भाषा के विपुल प्राचीन साहित्य से सम्बन्धित पांडुलिपियों में रचना-काल का उल्लेख नहीं है। फिर भी ऎतिहासिक विकास की परिस्थितियों, प्रब्रजन की दशाओं और भाषायी सम्पर्क के इतिहास को आधार बनाकर किसी मान्य निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है। इस कसौटी के आधार पर मणिपुरी भाषा में लेखन-परम्परा की शुरुआत आठवीं शताब्दी के लगभग से मानना अनुचित नहीं है।"
"प्राचीन और पूर्व मध्यकालीन साहित्येतिहास आनुष्ठानिक रचनाओं, स्तोत्र साहित्य, वीरपूजा सम्बन्धी कृतियों, अलौकिक-प्रेम पर आधारित गीतों, पुराकालिक इतिवृत्तात्मक रचनाओं, सामान्य धार्मिक विश्वासों पर आधारित कथाओं और सामाजिक- व्यवस्था सम्बन्धी रचनाओं से समृद्ध है। इस काल में राज-परम्पराओं, प्रकृति-प्रेम, कार्य-विभाजन, काल-चिन्तन, पुष्प-ज्ञान, कृषि आदि से सम्बन्धित साहित्य विशाल मात्रा में रचा गया।"
"आनुष्ठानिक साहित्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, ‘लाइ-हराओबा’सम्बन्धी गीत। लाइहराओबा मीतै जाति का एक धार्मिक-अनुष्ठान है, जो उसकी उत्सवप्रियता, जीवन-दर्शन एवं कलात्मक-रुचि को एक साथ प्रस्तुत करता है। कहा जाता है कि नौ देवताओं [जिन्हें लाइपुङ्थौ कहा जाता है] ने मिलकर इस पृथ्वी को स्वर्ग से उतारा। सात देवियाँ [लाइ नुरा] जल पर नृत्य कर रही थीं। उन्होंने विशेष मुद्राओं के साथ इस पृथ्वी को सम्भाला और जल पर ही स्थापित कर दिया। अपने मूल रूप में यह पृथ्वी बहुत उबड़-खाबड़ थी। इसे रहने योग्य बनाने का दायित्व माइबियों [विशेष पुजारिनें] को सौंपा गया। उन्होंने नृत्य-गति नियन्त्रित चरणों से इसे समतल किया और निवास के योग्य बनाया। इस प्रकार पृथ्वी का निर्माण हो जाने के बाद ‘अतिया गुरु शिदबा’ और ‘लैमरेन’ देवी ने यह निश्चय किया कि वे किसी सुन्दर घाटी में नृत्य करें। खोज करने पर उन्हें पर्वतों से घिरी एक घाटी मिली, जो जल से परिपूर्ण थी। अतिया गुरु शिदबा ने अपने त्रिशूल से पर्वत में तीन छेद किए, जिससे जल बह गया और पृथ्वी निकल आई। इसी पृथ्वी पर गुरु शिदबा और देवी लैमरेन ने सात अन्य देवियों तथा सात देवताओं के साथ नृत्य किया। देवताओं की प्रसन्नता का यह प्रथम नृत्य था, जिसकी स्मृति में प्रति वर्ष लाइहराओबा नामक धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न किया गया है।"
यह कथा पढ़कर पाठक को निश्चय ही शिव [शिदबा] पुराण की याद आई होगी। हम चाहें भारत के किसी भी कोने में क्यों न हों, हमारी धार्मिक दंतकथाएँ, प्रथाएँ और संस्कृति एक दूसरे को जोडे़ हुए मिलेंगी।
........क्रमशः
----- प्रस्तुति : चंद्रमौलेश्वर प्रसाद
मणिपुरी कविता के इतिहास की इस श्रंखला से यह बात उभरती है कि प्रो. देवराज की इतिहास दृष्टि में लोक-दृष्टि का बड़ा महत्त्व है. वे शिष्ट साहित्य को लोक-साहित्य की पुष्ट परम्परा के साथ जोड़ कर विवेचित करते हैं. निश्चय ही यदि हिन्दी साहित्य का ही लोक-साहित्य की दृष्टि से पुनः अवलोकन किया जाए तो रोचक और उपयोगी परिणाम सामने आ सकते हैं. सामग्री के प्रस्तोताओं को बधाई.
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