धरती : धरती : धरती

`पृथ्वी-दिवस' पर विशेष

आ: धरती कितना देती है
(सुमित्रानंदन पंत)


मैने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा !
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहाँ मिटे , कब धूल हो गये ।
मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनों तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।
अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।
औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।
मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सहसा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।
देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी -
जो भी हो, वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।
निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से,
नन्हे नाटे पैर पटक, बढ़ती जाती है ।

तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तों से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गईं बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को
मै अवाक् रह गया वंश कैसे बढता है
यह धरती कितना देती है ।
धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन में , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर
रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने हैं
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने हैं
इसमे मानव ममता के दाने बोने हैं
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें
मानवता की - जीवन श्रम से
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे
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देश की धरती
(रामावतार त्यागी
)

मन समर्पित, तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अंकिचन
किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब भी
कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण
गान अर्पित, प्राण अर्पित
रक्त का कण-कण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
कर रहा आराधना मैं आज तेरी
एक विनती तो करो स्वीकार मेरी
भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी
शीश पर आशीष की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का क्षण-क्षण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
तोड़ता हूँ मोह का बंधन क्षमा दो
गाँव मेरे, द्वार, घर, आँगन क्षमा दो
देश का जयगान अधरों पर सजा है
देश का ध्वज हाथ में केवल थमा दो
ये सुमन लो, यह चमन लो
नीड़ का तृण-तृण समर्पित
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूँ !
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गले तक धरती में
(कुंवर नारायण)

गले तक धरती में गड़े हुए भी
सोच रहा हूँ
कि बँधे हों हाथ और पाँव
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त
जितना बचा हूँ
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
कि अगर नाक हूँ
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
मिट्टी की महक को
हलकोर कर बाँधती
फूलों की सूक्तियों में
और फिर खोल देती
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
हज़ारों मुक्तियों में
कि अगर कान हूँ
तो एक धारावाहिक कथानक की
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
चीखें और हाहाकार
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
अगर ज़बान हूँ
तो दे सकता हूँ ज़बान
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
अगर ओंठ हूँ
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
क्रूरताओं को लज्जित करती
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान
अगर आँखें हूँ
तो तिल-भर जगह में
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ....
गले तक धरती में गड़े हुए भी
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
उतने समय को ही अगर
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
एक आदमक़द विचार ।
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धरती और भार
(अरुण कमल)

भौजी, डोल हाथ में टाँगे
मत जाओ नल पर पानी भरने
तुम्हारा डोलता है पेट
झूलता है अन्दर बँधा हुआ बच्चा
गली बहुत रुखड़ी है
गड़े हैं कंकड़-पत्थर
दोनों हाथों से लटके हुए डोल
अब और तुम्हें खींचेंगे धरती पर
झोर देंगे देह की नसें
उकस जाएँगी हड्डियाँ
ऊपर-नीचे दोलेगा पेट
और थक जाएगा बउआ
भैया से बोलो बैठा दें कहीं से
घर के आँगन में नल
तुम कैसे नहाओगी सड़क के किनारे
लोगों के बीच
कैसे किस पाँव पर खड़ी रह पाओगी
तुम देर-देर तक
तुम कितना झुकोगी
देह को कितना मरोड़ोगी
घर के छोटे दरवाज़े में
तुम फिर गिर जाओगी
कितनी कमज़ोर हो गई हो तुम
जामुन की डाल-सी
भौजी, हाथ में डोल लिए
मत जाना नल पर पानी भरने
तुम गिर जाओगी
और बउआ...

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बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
(मजाज़ लखनवी)


बोल ! अरी, ओ धरती बोल
राज सिंहासन डाँवाडोल!
बादल, बिजली, रैन अंधियारी, दुख की मारी परजा सारी
बूढ़े़, बच्चे सब दुखिया हैं, दुखिया नर हैं, दुखिया नारी
बस्ती-बस्ती लूट मची है, सब बनिये हैं सब व्यापारी
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
कलजुग में जग के रखवाले चांदी वाले सोने वाले,
देसी हों या परदेसी हों, नीले पीले गोरे काले
मक्खी भुनगे भिन-भिन करते ढूंढे हैं मकड़ी के जाले,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
क्या अफरंगी, क्या तातारी, आँख बची और बरछी मारी!
कब तक जनता की बेचैनी, कब तक जनता की बेजारी,
कब तक सरमाए के धंदे, कब तक यह सरमायादारी,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
नामी और मशहूर नहीं हम, लेकिन क्या मज़दूर नहीं हम
धोखा और मज़दूरों को दें, ऐसे तो मज़बूर नहीं हम,
मंज़िल अपने पाँव के नीचे, मंज़िल से अब दूर नहीं हम,
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
बोल कि तेरी खिदमत की है, बोल कि तेरा काम किया है,
बोल कि तेरे फल खाये हैं, बोल कि तेरा दूध पिया है,
बोल कि हमने हश्र उठाया, बोल कि हमसे हश्र उठा है,
बोल कि हमसे जागी दुनिया
बोल कि हमसे जागी धरती
बोल ! अरी, ओ धरती बोल !
राज सिंहासन डाँवाडोल!

1 टिप्पणी:

  1. केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं के बाद अब धरती पर केंद्रित ये कविताएँ!अद्भुत!आह्लादकर! धरती से मनुष्य के सम्बन्ध की कविताएँ सदा से लिखी जाती रही हैं. बहुत सुंदर बन पड़ा है यह चयन! साधुवाद!

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