पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है : `पहल' के बहाने
अभी कुछ समय पूर्व जबलपुर से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक पत्रिका पहल का घोषणा पूर्वक बंद हो जाना साहित्यिक जगत में काफी चर्चा का विषय रहा। नेट पर और ब्लॉग आदि के माध्यम से भी इस सन्दर्भ में काफी क्षोभ प्रकट किए गया। किसी भी पत्रिका का यकायक यों ठहर जाना /थम जाना, यद्यपि पाठकीय चेतना के ह्रास जैसे प्रश्नों पर आ कर ठहर जाता है, किंतु प्रकारांतर में कई अवांतर कथाएँ व सन्दर्भ भी इस मध्य उद्घाटित होते हैं जिन्हें साहित्यिक परिधि की उस सीमारेखा पर आकर ठहर जाने की आकुलता उद्घाटित करती है, जिसे व्यक्ति/ राजनीति/ छद्म या व्यापार जैसे विशेषण भी दिए जा सकते हैं। इस प्रकरण में यह किस परिधि पर, किन अनुत्तरित प्रश्नों के, कौन-से उत्तर हैं - इसे जानने के लिए संवाद प्रकाशन के आलोक श्रीवास्तव द्वारा प्रेषित इस आलेख को अवश्य पूरा पढ़ें। साहित्यिक परिदृश्य पर कौन-सी व कैसी शक्तियाँ काबिज हैं और किन उद्देश्यों को लेकर, यह जानने के लिए भी इस आलेख का पढ़ा जाना आवश्यक है। यह है - पहल के बंद होने के बाद की कथा ... और उस बहाने अपने समकालीन साहित्यिक चरित्र का वास्तविक लेखा-जोखा.
- कविता वाचक्नवी
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10 जनवरी, 2009
माननीय हरिनारायण जीआशा है आप मजे में होंगे. जैसा कि फोन पर बात हुई थी, कथादेश के लिए लेख भेज रहा हूँ । लेख कुछ बेहद महत्वपूर्ण मसलों से वाबस्ता है, यद्यपि इसमें हिंदी साहित्य के कुछ स्वनामधन्यों के लिए कुछ कड़ी बातें कही गई हैं, परंतु उन बातों की सच्चाई के बारे में आप मुझसे अधिक और सप्रमाण जानते हैं. बल्कि सत्य की रोशनी में देखा जाए तो ये कड़ी बातें बहुत अपर्याप्त साबित होंगी. हिंदी में आपसी ले-दे के तहत तो अपशब्दों तक के इस्तेमाल से गुरेज नहीं है, परंतु किसी गहरे मुददे पर तथाकथित वर्चस्वियों के बारे में एक आम सहमति का माहौल है. आशा है यह लेख, हमेशा की तरह अविकल छापेंगे.
नवंबर के प्रथम सप्ताह में अपनी कविता कथादेश के लिए भेजी थी. अगर किसी कारण से न छाप सकें तो, सूचित अवश्य कर दीजिएगा, ताकि अन्यत्र भेज सकूँ.
आशा है स्वस्थ और प्रसन्न होंगे.
सादर आपका
आलोक श्रीवास्तव
07 मार्च, 2009
यह लेख कथादेश में छपा नहीं। पहले, संपादक महोदय लेख न मिलने की बात करते रहे, जब लेख ई.मेल, कूरियर, सीडी, पीडी एफ फाइल साथ ही प्रिंट आउट के हर संभव तरीके से भेज दिए गए, तो वे मौन साध गए. दो माह बाद फोन करने पर कहा कि लेख जमा नहीं, किस कारण, इसके जवाब में फिर मौन था. तो मित्रों यह हाल है हमारी भाषा के साहित्य-समाज का. कायरता, चुप्पी, निहित स्वार्थ, डर..... यह कहानी है हिंदी के मौजूदा दौर के साहित्य उसके रखवालों और उसके मठाधीशों की....
इसी कथादेश में मैंने बिना पारिश्रमिक लिए, संपादक के निरंतर दबाव भरे आग्रह के कारण बरसों एक स्तंभ लिखा -- ‘अखबारनामा’. वह भी तब लिखा, जबकि लिखने का समय निकाल पाना मुश्किल था, सिर्फ मीडिया से जुड़े मुददों के प्रति प्रतिबद्धता और साथ ही संपादक का अत्यधिक विनम्रतापूर्ण और निरंतर दबाव. जिन पाठकों ने इस लेखमाला को पसंद किया, कभी न लिख पाने की स्थिति में निरंतर फोन कर आग्रह किया, उनसे विनयपूर्वक क्षमायाचना के साथ कहना पड़ रहा है कि अब यह स्तंभ उन तक न पहुँच सकेगा -- क्योंकि मेरा जमीर गवारा नहीं करेगा कि ऐसी पत्रिका में लिखने के लिए जहाँ हिंदी साहित्य के एक अत्यधिक संवेदनशील मुददे के साथ ऐसी कुटिलता बरती जाए और वह भी इस शिल्प में कि आप नौ साल से अपने लिए नियमित लिख रहे लेखक को सूचित करने का साहस, सौजन्य और औपचारिकता बरतना भी जरूरी न समझें....
बहरहाल अब यह लेख ई-मेल, ब्लॉग आदि के जरिए हिंदी के पाठकों तक प्रेषित है और अतिशीघ्र इसकी बीस हजार प्रतियाँ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर वितरित की जाएँगी।
ज्ञानरंजन ने एक अपराध कर दिया है. उन्हें मृत्यु जब तक विवश न कर दे, तब तक पहल निकालते रहना चाहिए था ताकि हिंदी का साहित्यिक समुदाय यह कह सके कि जब वे दिवंगत हुए तो, वे पहल के आगामी अंक का प्रूफ मृत्युशैया पर भी देख रहे थे, वे अपने हाथों से लिफाफों पर पते लिख कर डाकखाने में डालने खुद जा रहे थे, वे हिंदी की एक महान आत्मा थे. अब चूँकि उन्होंने पहल को बंद करने का अपराध कर दिया है, तो हिंदी के बौद्धिक गण उन्हें सजा देना चाह रहे हैं. यह सजा कैसी हो, इस पर फिलहाल हिंदी के सार्वजनिक साहित्य क्षेत्र में बौद्धिकों का विमर्श जारी है.... मैंने उपरोक्त पंक्तियाँ लिखीं और सोचा कि इस पूरे मसले पर व्यंग्य की भाषा में पूरा लेख लिख दिया जाए. पर यह संभव नहीं हो पा रहा है. क्योंकि कुछ बहुत ठोस तथ्य सामने रखने पड़ेंगे. कुछ मुददे उठाने पड़ेंगे, कुछ टिप्पणियाँ देनी पड़ेंगी. कुछ प्रतिरोध करना पड़ेगा, और संभवतः हिंदी के आत्ममुग्ध बौद्धिकों के लिए कुछ ऐसी संज्ञाओं का सृजन करना पड़ेगा, जिसके वे उपयुक्त पात्र हैं. यह पूरा मसला इतना अश्लील, इतना कृतघ्नता से पूर्ण और इतना गर्हित है कि इसे नोटिस ही नहीं लिया जाना चाहिए था, पर चूंकि हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादकों ने अपनी भरपूर मूढ़ता और अहंमन्यता जाहिर की है, अतः इसकी उपेक्षा संभव नहीं. मसला ज्ञानरंजन का नहीं है, मसला पहल का भी नहीं है. मसला हिंदी के उन बचे रह गए पाठकों का है, जो अब भी अपने कस्बों शहरों में हिंदी की इन पत्रिकाओं में छपने वाली चीजों से प्रभावित होते हैं. मैं इन पत्रिकाओं के संपादकों से सिर्फ यह पूछना चाहता हूँ कि इन पाठकों को आप बताना क्या चाह रहे हैं? ज्ञानरंजन और पहल पर आपकी टिप्पणियों का क्या अर्थ है? क्या आप सचमुच में हिंदी के पाठकों को इस योग्य समझते हैं, कि अपनी कोई भी लीद पूरे आत्मविश्वास के साथ उन पर कर ही देंगे, और सोचेंगे कि आपने एक बौद्धिक कर्म किया है. विचार किया है,चिंतन किया है और विमर्श में कुछ जोड़ा है?
राजेंद्र यादव लिखते हैं --
समायांतर में नवीन पाठक के नाम से पंकज बिष्ट लिखते हैं --
रवींद्र कालिया लिखते हैं --
हिंदी में लघुपत्रिकाओं की स्थिति विचित्र है. अनेक पत्रिकाएं ऐसी हैं, जिन्हें कुछ साहित्यानुरागी अथवा यशःप्रार्थी संपादक अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकाशित करते हैं. ऐसी पत्रिकाएँ भी बरसों बरस प्रकाशित होती रहती हैं और जब संपादक की इन्द्रियाँ शिथिल होने लगती हैं, तो पत्रिका एक दिन अचानक आँख मूँद लेती है. उपरोक्त सारे कथन जो इन तीन विद्वानों ने लिखे हैं, न सिर्फ तर्क और तथ्य की कसौटी पर मिथ्या हैं, अपितु वैयक्तिक पूर्वग्रह और जबर्दस्त रूप से कमजहनी से उत्पादित हैं. पहल के बंद होने को ये विद्वान + एक्टिविस्ट संपादक गण कुछ दूर की कौड़ियों से जोड़ रहे हैं. पहल किसी संस्थान से नहीं निकलती थी, वह वैयक्तिक प्रयास थी. हिंदी में बहुत सी पत्रिकाएँ वैयक्तिक प्रयासों से निकली हैं और उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी भूमिका निभाई है. पहल चूँकि हिंदी की लघुपत्रिकाओं में काफी पुरानी और सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका रही, अतः उसका बंद होना पाठक, लेखक, शुभचिंतक किसी भी रूप में उससे जुड़े व्यक्तियों को निराशा और दुख से भर देने वाला है. इस दुख में हिंदी समाज की साझी अभिव्यक्ति होनी चाहिए. परंतु उपरोक्त कथनों से यह संकेत मिल रहा कि किन्हीं पुराने हिसाबों को चुकाने और किन्हीं कुंठाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर पहल ने कुछ लोगों को दे दिया है, जो हिंदी के साहित्य समाज की ओर से स्वयंभुओं की तरह आप्त वाक्य बोल रहे हैं. पहल के बंद होने का इन्हें कोई रंज नहीं है. उपरोक्त कथनों में दो तरह की आपत्तियाँ हैं --
सबसे पहले तो ये दोनों बातें उपरोक्त विद्वान गण एक साथ कह रहे हैं, जो अपने में एक बड़ा अंतर्विरोध है, और इस प्रकरण को इस तरह प्रस्तुत करने की उनकी मंशा को एकबारगी ही बहुत अच्छी तरह से उजागर कर देता है. परंतु फिर भी आइए मामले को थोड़ा तफसील में देखते हैं.
पहल जबलपुर जैसे छोटे कस्बाई शहर से एक ऐसे समय निकली जब उसकी सख्त जरूरत थी. जरूरत इसलिए थी कि मार्क्सवादी साहित्यिक मूल्यों पर आधारित समकालीन रचनाधर्मिता के लिए एक रचनात्मक केंद्र बन सके. पहल ने अपनी यह भूमिका पूरी गरिमा के साथ निभाई. मैं जानता हूँ कि हिंदी का हर संवेदनशील पाठक जो पहल की भूमिका को जानता है और ज्ञानरंजन को जानता है, वह भले पहल से असहमत हो, ज्ञानरंजन से उसकी असहमतियाँ हों, इस पूरे प्रकरण से आहत हुआ है -- देश भर में. क्या पहल की विदाई पर इस तरह की टुच्ची राजनीति शोभनीय लग रही है? क्या यह सचमुच कोई वैचारिक मसला है? पहल का बंद होना हिंदी के साहित्य समाज के लिए कितना बड़ी क्षति है, वह यह जानता है, पर क्या सचमुच इस प्रकरण का इस्तेमाल दमित कुठाओं को निकालने के लिए किया जाना चाहिए. मैं जानता हूँ इन प्रतिक्रियाओं के मनोवैज्ञानिक कारण क्या हैं. एक सुरक्षित जीवन जीते हुए, व्यवस्था से चैतरफा लाभ लेते हुए, संपत्ति और परिवार के ढांचे में तयशुदा व्यक्तित्व जीते हुए खुद की छवि रूसो, वाल्तेयर या प्रबोधन काल के बौद्धिकों जैसी कस्बाई पाठकों पर प्रक्षेपित करने की दयनीय चेष्टा ही इसका मनोवैज्ञानिक कारण है. हिंदी के ये पिददी बौद्धिक नहीं जानते कि विचारों और सिद्धांतों के लिए जीना एक दूसरी बात होती है और उन्हें इस्तेमाल करते हुए जीना एक दूसरी बात.
इन टिप्पणियों की सबसे बड़ी खामी यह है कि ये टिप्पणियाँ व्यक्तिवादी किस्म की हैं और चरित्र-हनन के प्रच्छन्न उद्देश्य से लिखी गई हैं. इन टिप्पणियों में इस बात की कोई चिंता नहीं है कि साम्राज्यवाद ने राष्ट्रों की संस्कृति के साथ, भाषा के साथ और मानवीय सर्जनात्मकता के साथ क्या कर दिया है. यानी यह कि आज हिंदी साहित्य, समाज और संस्कृति किस हाल में है. क्या पहल एक अकेले ज्ञानरंजन की जिम्मेदारी है? क्या हिंदी में बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक और किताबी बातें बघारने वाले लोग वास्तव में इस बात से चिंतित हैं, कि इस भाषा और इसके साहित्य के साथ प्रकारांतर से इसकी वैचारिकता और सर्जनात्मकता के साथ क्या हो गया है? क्या इस गहरे सांस्कृतिक संकट को लेकर वे कर्म के स्तर पर कहीं सचमुच चिंतित हैं, संबद्ध हैं? क्या ये लोग कभी इस बात को सोचना भी चाहेंगे कि क्यों 35 वर्षों तक निकलने के बाद 50 करोड़ के हिंदी समाज में वह इतना क्यों नहीं बिक सकी कि एक बड़े संस्थान का रूप ले पाती और जिसकी अनंतजीविता एक व्यक्ति ज्ञानरंजन पर नहीं बल्कि उसके समाज की होती. क्यों हंस को एक संस्थान का रूप ग्रहण करने के लिए, प्रभा खेतान, गौतम नवलखा, आदि न जाने कितनों के पैसे पर अवलंबित रहना पड़ा ? इस समाज में इतनी शक्ति क्यों नहीं है? यह कैसा हिंदी समाज है? हिंदी की कोसों फैली उजाड़ भूमि के बीच यह कौन पंकज बिष्ट, कौन राजेंद्र यादव कौन रवींद्र कालिया हैं, जो ध्वंस के इतने महानाटय के बीच इतने आत्मविश्वास से इतनी कुतर्कपूर्ण बातें लिख देते हैं, और इस बात के लिए निश्चिंत हो जाते हैं, कि वे हिंदी के कमजहन पाठकों का प्रबोधन कर रहे हैं. हम क्यों नहीं संस्थाएँ पैदा कर पाते, हम क्यों नहीं उन्हें मजबूत आर्थिक आधार दे पाते, क्योंकि हम सब उन सेठों की तरह हैं, जिनकी जिंदगी के मूल कार्यस्थल और प्रेरणाएं कहीं और हैं, कुछ और हैं, और जो धर्मशालाए और प्याउ खुलवाकर अमरत्व पाना चाहते हैं, हमारे बुद्धिजीवीगणों का जीवन के प्रति ठीक यही नजरिया है, साहित्य और संस्कृति, विचार और प्रतिबद्धता उनके संपूर्ण जीवन का एक छोटा-सा कोना भर हैं, उसके बल पर वे काल से अमरत्व का सौदा करने चले हैं. आज जो संकट या संकट न कहें स्थिति कह लें, पहल के साथ हुई, वही कल हंस के साथ, समयांतर के साथ होगी ही। इसी भाषा में सांचा जैसी बेमिसाल पत्रिका हिंदी के साहित्यवादियों की जिन बेहूदगियों से बंद हुई उसकी स्मृतियाँ और प्रमाण बहुतों के पास अब भी होंगे. राजेंद्र यादव आज भी इस मसले पर पूरे आत्मविश्वास से झूठ का उत्पादन करते हैं. मेरा मानना है कि हिंदी के लिए पहल से ज्यादा जरूरी सांचा थी, छाती पीटने वाली इन विभूतियों ने सांचा को क्यों नहीं बचाया?
जिन दिनों सांचा बंद हुई, उन दिनों उसके किन्हीं आखिरी अंकों में छपी एक अपील आज भी मेरे पास सुरक्षित रखी है. इस अपील में हिंदी के पाठकों से सांचा को बचाने के लिए पुरजोर आहवान किया गया था और इस बात की पुकार की गई थी, कि पाठक चंदा भेज कर ट्रस्ट निर्माण में सहयोग दें, जो सांचा को जारी रख सके. मुझे उस समय भी इस अपील पर हैरत हुई थी, और आज इस तरह के तमाम पांखडों के एक-एक रेशे को मैं जानता हूँ। उस अपील पर हिंदी की बड़ी-बड़ी विभूतियों के हस्ताक्षर थे -- पचासों के. वे किन अनाम पाठकों से गुहार कर रहे थे? किनका वे आह्वान कर रहे थे? अगर उन आह्वानकर्ताओं ने, जिनमें से अधिकांशतः तब भी बहुत पुख्ता माली हालत में थे, अपनी गाँठ से 10-20 हजार भी निकाले होते तो एक मजबूत ट्रस्ट का निर्माण संभव था, और निश्चित रूप से दूर-दराज के पाठक भी धीमे-धीमें इसमें अपना योगदान देते. परंतु ऐसे प्रयासों की विश्वसनीयता ही स्थापित नहीं हो पाती. क्योंकि ये प्रयास नहीं पाखंड मात्र होते हैं. हंस की महानता का अनवरत ढिंढोरा पीटने वाले राजेंद्र यादव यह कभी नहीं बताएंगे कि क्यों हंस हिंदी पाठकों के लिए इतनी अनिवार्य थी, कि उसके लिए युवा छात्र नेता चंद्रशेखर के हत्यारों के संरक्षक मुख्यमंत्री के हाथों लिए गए गर्हित पुरस्कार से लेकर तमाम तरह के स्रोतों से धन लेने को वे बड़ी वीतरागिता से हंस के जीवन के के लिए जरूरी मानते हैं, उनके अक्षर प्रकाशन से ही निकली सांचा किस तर्क से हिंदी पाठकों के लिए कम जरूरी थी? सांचा के प्रकाशन को हिंदी के समस्त साहित्य समाज ने, समूचे बौद्धिक जगत ने एक ऐसी परिघटना के रूप में लिया था, जो हिंदी में एक ठोस क्रांतिकारी बौद्धिकता के निर्माण के लिए अनिवार्य स्रोत और प्रेरणा का काम करेगी. कुछ माह पूर्व ही, सांचा के बारे में वे हंस के संपादकीय में लिखते हैं कि वह गौतम नवलखा की किन्हीं वैयक्तिक महत्वाकांक्षा से जुड़ी चीज थी, फरवरी 1989 में हौजखास में मन्नू भंडारी के घर पर उन्होंने मुझसे और मेरे एक मित्र से कहा था कि हंस से जुड़े होने के बावजूद गौतम की अकादमिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाने के कारण उन्होंने सांचा निकाली. देखिए तो झूठ और पाखंड की कैसी छटा है! हिंदी का संपूर्ण बौद्धिक समाज एक विराट पाखंड को जी रहा है. ऐसी स्थिति में पहल के बारे में कहे गए सारे आप्तवचन असत्य ही नहीं, अश्लील, गैरजिम्मेदारी से भरे और विद्वेषपूर्ण हैं. और ये सारे कथन आत्मश्लाघा की मानसिकता से उपजे हैं, न कि सचमुच किसी सर्जनात्मक चिंता से.
राजेंद्र यादव किस मुँह से पहल जैसी तीन-चार हजार छपने वाली पत्रिका का स्यापा विधवाओं की शैली में कर रहे हैं. क्या मैं इस बात को किसी भी दिन भूल पाऊँगा कि धर्मयुग के बंद होने पर किस तरह की अमानवीय चुप्पी उन्होंने ओढ़ी थी और अपने कार्यालय में कथाकार अखिलेश से मुझे बेइज्जत करवाया था, क्योंकि मैं उनसे एक मामूली से विरोध-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध करने के लिए मुंबई से हंस-कार्यालय गया था. जबकि धर्मयुग के बंद होने से वहाँ के कर्मचारी बेरोजगार हुए थे, और पूरे देश में यह मैसेज गया था कि हिंदी की पत्रिकाएँ चल ही नहीं सकतीं. कहाँ था तब राजेंद्र यादव का वह पत्रिका-प्रेम, जो पहल के बंद होने पर इस कदर बिलख उठा है!
मेरा मसला इन तथाकथित बौद्धिकों की आलोचना करना नहीं है, क्योंकि समय हर छद्म को एक दिन उधेड़ ही देता है, सुरक्षित संबंधों, सुरक्षित जिंदगियों वाली क्रांतिकारिता की पोल खुलती ही है. लोगों की वास्तविक मंशाएँ उजागर होती ही हैं. मैं सिर्फ इस बात को रेखांकित करना चाह रहा हूँ, कि हमारी भाषा के लिए यह संकट काल है, किसी भी पत्रिका का बंद होना, न चलना, कुछ बड़े सवालों से जुड़ता है, क्या हमें इस बात के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
कृष्णा सोबती ने अहा जिंदगी में लिखा है कि लेखकों को पाँच पाँच हजार जमा कर एक ट्रस्ट जैसा बना कर पत्रिका निकालनी चाहिए. मैं हिंदी के बौद्धिक क्षेत्र में पिछले 20 सालों से वाकिफ रहा हूँ. मैं ऐसे सैकड़ों लेखकों को जानता हूँ , जो साहित्य के चेग्वेरा हैं, इतनी बड़ी बड़ी बातें, इतने गहन लेख, इतने विराट सेमिनार, चिंता का इतना बड़ा कारोबार! क्यों 5-5 हजार रुपए भाई? हिंदी के वरिष्ठ लेखकों, आपमें से कम से कम दस दर्जन लोगों को मैं जानता हूँ, जो राजधानियों में 50 लाख से एक करोड़ के फ्लैट में रहते हैं, जिनकी पूरी माली हालत का आकलन 2 से 3 करोड़ के बीच बैठेगा, जिनकी अगली पीढ़ी अमरीका में मोटा पैसा काट रही है, या काटने के लिए तैयार हो रही है, तो भाई साहित्य के नाम पर चिंता का कारोबार न कर क्यों नहीं 4-5 लाख प्रति लेखक चंदा किया जाए? हिंदी समाज में एक 3-4 हजार की बिक्री वाली पहल नहीं, बल्कि एकाध लाख के प्रसार वाली पत्रिका क्यों नहीं निकाली जा सकती? यह बात बहुतों को मजाक और अतिरेकी लगेगी. इतनी मोटी रकम भी भला गाँठ से कोई निकालता है? तो फिर बड़ी-बड़ी चिंताएँ मत करिए. सच की चाशनी में इतना झूठ मत परोसिए और चरित्र हनन को सैद्धांतिक भाषा में मत सजाइए.
अंत में यह कहना आवश्यक है कि पहल के बंद होने को जो रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह जनता से कटे हिंदी के बौद्धिक वर्ग की उस प्रकृति को ही उजागर करती है, जो आत्मनिष्ठ है, और जिसके लिए विचारधारा और सृजन एक साफ्ट किस्म के वैयक्तिक रोजगार से ज्यादा महत्व नहीं रखते. यह लेख हिंदी साहित्य की दो परंपराओं -- कर्मठता, श्रम, और निवैयक्तिक प्रयत्न तथा दर्प, और छिछोरेपन के फर्क को रेखांकित करने और उसमें से एक धारा को अपने और अपनी पीढ़ी के लिए चुनने के लिए लिखा गया है, अन्यथा किसी ज्ञानरंजन या पहल को न तो ऐसे बचावों की जरूरत है, न अपने पक्ष में किन्हीं बयानों, तर्कों, दस्तावेजों की और न ही आत्ममुग्ध कुतर्कियों को अपने पराभव के लिए समय और काल के प्रहार के इतर किसी प्रहार की.
- आलोक श्रीवास्तव
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वसई रोड (पूर्व), ( जिला- ठाणे )
पिन .. 401 208 ; (वाया मुंबई )
फ़ोन ०९३२००१-६६८४ / २५०- २४६२४६९
ईमेल - samvad.in@gmail.com
पाखंडी नैतिकता का अश्वमेध जारी है
- आलोक श्रीवास्तव
यह लेख पहल के बंद होने पर की गई प्रतिक्रियाओं पर लिखा गया है. पर यह इसका मूल विषय नहीं है. हिंदी का संसार साम्राज्यवाद द्वारा उत्पन्न परिस्थितियों के कारण जैसे जैसे तिरोहित होता जा रहा है -- अर्थात हिंदी में पाठक लगभग खत्म हो गए हैं, लेखन दोयम दर्जे का हो चुका है, उत्सव, पुरस्कार, जनसंपर्क आदि-आदि बढ़ते गए हैं, बौद्धिक परंपरा अस्तप्राय: है -- ऐसे में कुछ लोग नैतिकता का रोजगार कर रहे हैं. इन स्थितियों की जड़ों तक पहुँचने और हिंदी भाषा, उसके साहित्य और उसकी वैचारिकता को सुरक्षित रखने, पल्लवित करने के आधारभूत संघर्ष न कर अवसरवादी तरीके से और जड़ता के भरपूर आत्मविश्वास के साथ कुछ चुनी हुई चीजों को निशाना बनाते हैं और उसे इस तरह ध्वस्त कर देते हैं, जैसे उसका कुछ अर्थ ही न था. यह राजनीति कुछ के पक्ष में चुनी हुई चुप्पियों और कुछ के खिलाफ सोटा लेकर भागने वाले गुरू जी या गाँव के थानेदार की राजनीति है. यहाँ चीजों के वृहत्तर परिप्रेक्ष्य और संस्कृति की वास्तविक चिंताएँ नदारद हैं, है तो सिर्फ एक बहुत चालाक आत्मविश्वास जो चीजों का मूल्याँकन नहीं, अवमूल्यन करता है. यह लेख इस प्रवृत्ति के विरुद्ध है, पहल इसका एक तात्कालिक कारण मात्र है.
राजेंद्र यादव लिखते हैं --
- मैं भी सोचता हूँ, दो साल बाद क्या मैं भी ऐसी ही घोषणा हंस को लेकर कर दूँ ? आखिर पचीस वर्ष तक मैंने इसे अपनी साँस-साँस में जिया ही है. (महोदय, चूँकि यहाँ आप ज्ञानरंजन से अपनी तुलना कर रहे हैं तो आपको यह भी बताना चाहिए कि हँस आपने तब निकाली जब 55 की उम्र पार कर चुके थे, लेखक के रूप में आपका कुछ बन न पाया था और आपकी पत्नी मन्नू भंडारी कॉलेज में प्राध्यापक थीं, और अनेक मित्रों संस्थाओं का आपने भरपूर आर्थिक सहयोग प्राप्त किया था, जबकि पहल के साथ और ज्ञानरंजन के साथ ऐसी कोई परिस्थिति न थी. इस संदर्भ में तुलना के अनेक गंभीर बिंदु भी हैं, जिन्हें लिखना फिलहाल आपकी शान में गुस्ताखी होगा.)
- एक पत्रिका सिर्फ व्यक्तिगत प्रयास नहीं होती।
- ‘ पहल’ को बंद करना शायद पाठकों को ज्ञानरंजन का वैसा ही दंभ लगता है, जैसे आप राजधानी एक्सप्रेस में कलकत्ता जाने के लिए स्टेशन पर जाएँ तो पता लगे कि राजधानी हमेशा के लिए बंद हो गई है.
- कोई पत्रिका मरती तब है जब न नई स्थितियों की समझ हो, न नई रचनाशीलता के लिए सहानुभूति. यहाँ सबसे बड़ी बाधा बनती है अपनी पुरानी महानता और सिर्फ अपने को ही सही मानने की कुंठा. जब हर चीज पहले ही तय हो चुकी हो तो कहीं भी नया क्या होगा? (यहाँ फिर तुलना की गई है, तो आपको लगे हाथ यह भी बता देना चाहिए कि नई रचनाशीलता का अर्थ भी आप समझते हैं क्या? इसका अर्थ कुछ युवा लेखक-लेखिकाओं से तथाकथित दोस्ताना संबंध बनाना और उनकी रचनाओं को प्रमुखता से जगह देना ही नहीं है. आज के दौर में नई रचनाशीलता एक गहरे संकट से गुजर रही है, उसके रचनागत ही नहीं, सभ्यता और संस्कृतिगत गंभीर आयाम हैं, इसकी चिंता करना एक बात है और नए रचनाकारों को मंच मुहैया करना एक अलग बात. दोनों में घालमेल न करें. फिर आपको यह भी बताना चाहिए कि साठ वर्ष की उम्र तक आपके लेखन में जाति-चेतना और स्त्री-विमर्श का कतरा भी नजर नहीं आता, जबकि ज्योतिबा फुले, आंबेडकर आदि जाति-चेतना के लिए सैद्धांतिक कार्य कर चुके थे, इन दो बातों के लिए आपको यह इंतजार करना पड़ा कि जाति और पिछड़ों के नाम पर सत्ता और वर्चस्व की राजनीति का परिदृश्य बने और इसी प्रकार स्त्री-विमर्श के लिए ग्लोबलाइजेशन के तहत एक उठाईगीर संस्कृति स्त्री की छदम लिबरेटेड छवि उत्पन्न करे. महोदय आपकी रचनात्मक, वैचारिक और नैतिक बुनियादें बहुत कमजोर हैं, अतः दूसरों पर झूठे आरोप लगाने से बचें. आप ठीक से आत्मरक्षा तक नहीं कर पाएँगे.
हंस आपने निकाला हिंदी संसार पर बहुत एहसान किया, परंतु इसके जरिए जो बड़े दावे आपने किए हैं, उनके परीक्षण का अधिकार भावी पीढ़ी के पास सुरक्षित है.)
समायांतर में नवीन पाठक के नाम से पंकज बिष्ट लिखते हैं --
- अपनी सारी लोकप्रियता के बावजूद कोई नहीं जानता कि पहल वास्तव में कितनी छपती थी.
- अपने उच्च-भ्रू अंदाज और मंहगे दाम के कारण यह कभी भी आम हिंदी पाठक की पत्रिका नहीं बन पाई.
- पहल की सफलता का एक बड़ा कारण उसके लेखक थे, जो जाने-अनजाने प्रभावशाली वर्ग से आते थे, खासकर नौकरशाही से. इन कल्टीवेटेड ‘लेखकों’ ने पहल को जिलाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
- राजनीतिक संबंधों का भी इस सफलता में योगदान रहा है.
- पहल सदा से ही सॉफ्ट वाम की ओर झुकी पत्रिका रही है, पर शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उनका संस्थानों से सीधा टकराव हुआ हो, या उन्होंने सरकारों का या सत्ता का सीधे और मुखर विरोध किया हो. (मान्यवर यहाँ आप सॉफ्ट वाम और हार्ड वाम का जो विभाजन कर रहे हैं, उसके बारे में थोड़ा विस्तार से आपको लिखना चाहिए था. आप किस हार्डवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या हार्ड वाम की पत्रिका निकालने के लिए ही आपने एक महत्वपूर्ण सरकारी विभाग में जिंदगी भर बड़े पद पर नौकरी की और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर बाद के रिटायर्ड वर्षों में हार्ड वाम की सेवा को अपना मिशन बनाया? आपके आरोप ऊपर से सैद्धांतिक लगते हैं, पर अपनी अंतर्वस्तु में छिछोरे हैं)
- मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के होने के बावजूद कभी ऐसा नहीं हुआ कि उन्हें विज्ञापन लेने में किसी तरह की दिक्कत हुई हो.
- असल में पहल की बुनियाद में ही उसे सामान्य हिंदी पाठकों के लिए नहीं बनाया गया था.
- पहल ने पत्रिका को चलाने के जो तरीके अपनाए, उन्हें उनकी नकल करने वालों ने लगभग विकृति की हद तक पहुँचा दिया.
- पहल जैसी पत्रिकाओं से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे ऐसी व्यवस्था बनाएँ कि उनके संस्थापक संपादकों के बाद भी पत्रिका चलती रहे.
- असल में किसी भी संस्थान या सामाजिक प्रयत्न को बचाने के लिए ऐसी उदारता की जरूरत है, जो अपने परिवार जाति और संपद्राय से आगे बढ़ कर सोचने में समर्थ हो
रवींद्र कालिया लिखते हैं --
हिंदी में लघुपत्रिकाओं की स्थिति विचित्र है. अनेक पत्रिकाएं ऐसी हैं, जिन्हें कुछ साहित्यानुरागी अथवा यशःप्रार्थी संपादक अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए प्रकाशित करते हैं. ऐसी पत्रिकाएँ भी बरसों बरस प्रकाशित होती रहती हैं और जब संपादक की इन्द्रियाँ शिथिल होने लगती हैं, तो पत्रिका एक दिन अचानक आँख मूँद लेती है. उपरोक्त सारे कथन जो इन तीन विद्वानों ने लिखे हैं, न सिर्फ तर्क और तथ्य की कसौटी पर मिथ्या हैं, अपितु वैयक्तिक पूर्वग्रह और जबर्दस्त रूप से कमजहनी से उत्पादित हैं. पहल के बंद होने को ये विद्वान + एक्टिविस्ट संपादक गण कुछ दूर की कौड़ियों से जोड़ रहे हैं. पहल किसी संस्थान से नहीं निकलती थी, वह वैयक्तिक प्रयास थी. हिंदी में बहुत सी पत्रिकाएँ वैयक्तिक प्रयासों से निकली हैं और उन्होंने हिंदी साहित्य में अपनी भूमिका निभाई है. पहल चूँकि हिंदी की लघुपत्रिकाओं में काफी पुरानी और सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका रही, अतः उसका बंद होना पाठक, लेखक, शुभचिंतक किसी भी रूप में उससे जुड़े व्यक्तियों को निराशा और दुख से भर देने वाला है. इस दुख में हिंदी समाज की साझी अभिव्यक्ति होनी चाहिए. परंतु उपरोक्त कथनों से यह संकेत मिल रहा कि किन्हीं पुराने हिसाबों को चुकाने और किन्हीं कुंठाओं को अभिव्यक्त करने का अवसर पहल ने कुछ लोगों को दे दिया है, जो हिंदी के साहित्य समाज की ओर से स्वयंभुओं की तरह आप्त वाक्य बोल रहे हैं. पहल के बंद होने का इन्हें कोई रंज नहीं है. उपरोक्त कथनों में दो तरह की आपत्तियाँ हैं --
- पहल जब निकलती थी, तब उसके स्वरूप, उसके संचालन और उसके संपादक के पत्रिका को चलाने के तौर तरीके सही न थे.
- फिर भी पहल को बंद नहीं होना चाहिए था, उसके अनंत काल तक चलने का इंतजाम संपादक को कर देना चाहिए था, ऐसा न कर उसने घनघोर अनैतिकता, बेईमानी और दुष्टता का परिचय दिया है।
सबसे पहले तो ये दोनों बातें उपरोक्त विद्वान गण एक साथ कह रहे हैं, जो अपने में एक बड़ा अंतर्विरोध है, और इस प्रकरण को इस तरह प्रस्तुत करने की उनकी मंशा को एकबारगी ही बहुत अच्छी तरह से उजागर कर देता है. परंतु फिर भी आइए मामले को थोड़ा तफसील में देखते हैं.
- पहल के चलने के दौरान विद्वान लोग उसके सॉफ्ट वाम, आम पाठकों की पत्रिका न होने और संपादक के तौर-तरीकों को लेकर खामोश रहे और 35 साल तक खामोश रहे, और अब उसके बंद होने पर वे इसे एक मुददे की तरह पेश कर रहे हैं. यह अवसरवाद नहीं तो, और क्या है?
- पहल मँहगी थी, इसलिए कभी आम पाठकों की पत्रिका नहीं रही. क्या हंस, ज्ञानोदय, समयांतर, वसुधा, वागर्थ, कथादेश आम पाठकों की पत्रिकाएँ हैं? आम पाठकों से आपका अभिप्राय क्या है? यह सभी जानते हैं कि ये सभी पत्रिकाएँ सीमित प्रसार वाली साहित्यिक वैचारिक पत्रिकाएँ हैं, जो दस प्रांतों के हिंदी क्षेत्र की 50 करोड़ की आबादी के बीच जो 5-7 हजार का साहित्य समाज बनता है, उसके बीच बिकती और पढ़ी जाती हैं. हम जिस समाज में रहते हैं, उसका ढांचा, सांस्कृतिक स्थिति और बहुत से कारणों के चलते हिंदी की गंभीर पत्रिकाओं को आम पाठक या विशाल पाठक नहीं खरीद पाते, पढ़ पाते. यह एक समस्या है, और समूचे युग की समस्या है, इसका निदान ढूँढने की बजाय, इससे चिंतित होने की बजाय इस तरह का गैरजिम्मेदारी पूर्ण निष्कर्ष पाठकों पर थोप देना इस किस्म की ओझागिरी ही है कि रोग इसलिए हुआ कि दक्षिण में हवा से पेड़ की एक टहनी टूटी.
- पहल मँहगी नहीं थी. बंद होने के समय लगभग 300 पृष्ठों की सामग्री, बेहतर कागज पर सुरुचिपूर्ण ढंग से छपकर हिंदी पाठकों तक 50 रुपए में पहुँचती थी. उन्हें यह कभी मँहगी न लगी, शायद समयांतर के संपादक न्यूजप्रिंट पर छपने वाली अपनी कम पेजी बुकलेटी पत्रिका के साथ पहल की तुलना कर रहे हैं., ‘समयांतर’ न्यूजप्रिंट पर छपती है. इसके पृष्ठ अत्यंत कम हैं, कवर सादा होता है. यदि उत्पादन लागत और बिक्री मूल्य की तुलना की जाएगी तो संभव है, समयांतर अधिक महंगी ठहरे.
- पहल ही क्यों हिंदी की कौन सी पत्रिका कितनी छपती है, यह कोई नहीं जानता, मुझे याद है कि 1988 में हंस कार्यालय में राजेंद्र यादव ने कहा था कि हंस 20 हजार छपता है, दो-एक साल पहले उन्होंने ही कहीं कहा कि 8 हजार. समयांतर जब शुरू हुआ तो उसके दो हजार छपने की बात संपादक ने स्वयं कही थी, अभी वह कितना छपता है, इसका ब्यौरा उन्हें हर अंक में छापना चाहिए, साथ ही समयांतर को मिलने वाले विज्ञापनों से आने वाली राशि का ब्योरा भी हर अंक में साथ ही प्रकाशित करना चाहिए, ताकि पहल की तरह की गलतफहमी समायांतर के पाठकों को न हो और जिस तरह की छिद्रान्वेषी नैतिकता के पैमाने पर वे दूसरों को कसते हैं, वे पैमाने उन पर भी लागू हों.
- यह काॅमनसेंस की बात है कि हिंदी में इस तरह की साहित्यिक / वैचारिक पत्रिकाएँ एक हजार से 2-3 हजार प्रकाशित होती हैं, हंस, कथादेश जैसे स्वरूप की हुईं तो शायद 7-8 हजार. देखिए तो सही इस साधारण सी बात को कैसा सनसनी का आशय देने वाले वाक्य के रूप में लिखा गया है -- अपनी सारी लोकप्रियता के बावजूद कोई नहीं जानता कि पहल वास्तव में कितनी छपती थी. यानी पाठक खुद निष्कर्ष निकाल लें कि या तो पहल नाममात्र को 200-300 प्रति छपती थी, ताकि विज्ञापनों की कमाई होती रहे. या फिर पचीसों-पचासों हजार छपती थी, और संपादक भरपूर कमाई करता था. हिंदी के परिदृश्य को जो भी व्यक्ति जानता है, और उपरोक्त कथन के निहितार्थ पर जो भी विचार करेगा, उसे यह तुरंत ही पता चल जाएगा कि यह बात किस कोटि की दुर्भावना और मैले मन से जन्मी है.
- पत्रिका अपने उच्च-भ्रू अंदाज के कारण हिंदी के आम पाठक की पत्रिका नहीं बन पाई. भाई साहब, लगे हाथ यह भी कह डालिए न कि दास कैपिटल अपने उच्च भ्रू अंदाज के कारण मजूदर वर्ग में लोकप्रिय नहीं हो पाया, उसे दार्शनिक, क्रांतिकारी, विद्वान लोग ही पढ़ते रहे. यह सच है कि समाज वर्गों से मिल कर बना है, और एक बहुत बड़ी आबादी ज्ञान से वंचित है, उसके समाजशास्त्रीय और ऐतिहासिक कारण हैं. इतना मूर्खतापूर्ण सरलीकरण, फिर बताता है कि टिप्पणीकार की कुछ प्रच्छन्न मंशाएँ हैं. पहल और समयांतर के हंस और कथादेश के पाठकवर्ग में बहुत फर्क नहीं है, आरा-छपरा से लेकर, इंदौर-भोपाल और दिल्ली-लखनऊ तक कमोबेश इन सभी पत्रिकाओं का एक कॊमन पाठक वर्ग ही है, जो बहुत हुआ तो 10-12 हजार का होगा. लोकप्रियता की यह गाज गिराएँगे तो सभी पत्रिकाएँ किसी न किसी तरह से उच्च-भ्रू ही ठहरेंगी. यदि आप स्तरीय सामग्री देने, गंभीर आलेख देने, दुर्लभ दस्तावेज प्रकाशित करने और दर्जनों महत्वपूर्ण विशेषांकों के प्रकाशन को उच्च-भ्रू अंदाज ठहराना चाहते हैं, तो यह दयनीय तो है ही, दुखद भी है. आप चाह रहे हैं, हिंदी में कोई गंभीर, कोई सुरुचिपूर्ण काम हो ही न. सिर्फ साहित्य अकादमी, अशोक वाजपेयी, ओम थानवी, गिरिराज किशोर, गोपीचंद नारंग और जनसत्ता से हिसाब चुकता किया जाए? (मान्यवर, राजेंद्र यादव, राजकमल-राधाकृष्ण प्रकाशन आदि पर गुजरे दस सालों में आपने कृपा क्यों नहीं की?)
- यदि आपका कहना यह है कि पहल के लेखक प्रभावशाली वर्ग से आते थे, और ये कल्टीवेटेड लेखक थे, तो महोदय 35 वर्षों में पहल में छपे लेखकों की एक संक्षिप्त सूची ही ‘समयांतर’ के भावी अंक में प्रकाशित कर दें, ताकि हिंदी के लोग जानें कि ये प्रभावशाली वर्ग के लेखक कौन हैं, जो कल्टीवेट किए गए. पहल में 35 वर्ष तक सैकड़ों लेखक छपे हैं। पाश, आलोकधन्वा, लीलाधर जगूड़ी, सव्यसाची, विष्णुचंद्र शर्मा,, राजेश जोशी, विजेंद्र, मधुरेश, वेणुगोपाल, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, मनमोहन, नरेंद्र जैन, देवीप्रसाद मिश्र, प्रदीप सक्सेना, भीष्म साहनी.... सूची लंबी है, मान्यवर, बेशक पहल में प्रभावशाली वर्ग के और कुछ अधिकारी वर्ग के लेखक भी छपे हैं. और क्या यह बात मुझे आपको बतानी चाहिए कि इनमें से अधिकांश साहित्य, लेखन और विचार के प्रति अपने समर्पण के कारण जाने जाते हैं, और जिन्हें आप प्रभावशाली वर्ग का कह रहे हैं, उनमें से अधिकांश अपने लेखन की गुणवत्ता के कारण ही पहल में छपे हैं, मैं इन लेखकों से तुलना नहीं कर रहा हूँ , परंतु आप का वश चले तो आप विश्व साहित्य से नेरुदा, आॅक्तावियो पाज जैसे लेखकों का नामोनिशान मिटा देंगे क्योंकि ये तो सुपरअधिकारी थे, अपने देशों के राजदूत. आप यहीं नहीं रुकते आप वस्तुतः कहना यह चाह रहे हैं, पहल के पाठकों और हिंदी के बौद्धिक समाज ने नहीं, इन कल्टीवेटेड नकली लेखकों ने अपनी रचनाएँ छपवाई और एवज में पहल को विज्ञापन आदि दिलवाकर उसे जिलाए रखा. मान्यवर यहाँ अश्लीलता और कुतर्कों की हद है. क्या आप विभिन्न सरकारों से समयांतर, हंस, आदि-आदि पत्रिकाओं को मिले विज्ञापनों का हिसाब और ब्यौरा देना चाहेंगे? आप कांग्रेसी धर्मनिरपेक्षता से पाए हुए विज्ञापनों को भाजपा की सांप्रदायिकता से पाए जाने वाले विज्ञापनों से श्रेष्ठ होने का तर्क देना चाहते हैं? भारतीय राजनीति की, महोदय, यह सबसे दुखती रग है, इस पाखंड की जनता के बीच तो खपच्चियाँ उड़ चुकी हैं, बौद्धिक वर्ग जनता से इतर अपने को द्वीप समझता हुए अपने ही कुतर्कों को इतिहास का और समय का सच समझे तो समझ ही सकता है.
- पहल की सफलता के पीछे राजनीतिक संबंधों का भी योगदान रहा है. यह सर्वाधिक गंभीर आरोप है. निश्चित रूप से जुमला बोल कर पाठकों को बरगलाना अनुचित है. आपको यहाँ तर्क, प्रमाण, कारण, संदर्भ सब कुछ देने ही चाहिए. कौन से राजनीतिक संबंध? किसके राजनीतिक संबंध? और क्या योगदान?
- पहल का सरकार से सत्ता से कभी सीधा टकराव नहीं हुआ. वाह जेहादी, वाह! आप कौन सी सरकार से और कौन सी सत्ता से टकरा रहे हैं? यह आप कह ही चुके हैं कि पहल आम पाठक की पत्रिका नहीं थी. और यह बात मैं कह रहा हूं कि हिंदी की कोई भी साहित्यिक पत्रिका या लघु पत्रिका आम पाठक की पत्रिका नहीं है. ये सभी पत्रिकाएँ एक सीमित बौद्धिक पाठकों के बीच संचरित होती और पढ़ी जाती हैं, इन पत्रिकाओं का सत्ता नोटिस तक नहीं लेती. कभी-कभी हंस और समयांतर में आप कतिपय अग्निमय लेख -- सत्ता से टकराने वाले लेख लिख देते हैं, महोदय तो -- इस पूरी आश्वस्ति के साथ, कि पत्रिका का एक क्लोज्ड सर्किल के बाहर नोटिस तक नहीं लिया जाता. यह क्लोज्ड सर्किल आपको बहुत बड़ा क्रांतिकारी एक्टिविस्ट मान लेगा, और आप गाँव-कस्बों के पाठकों के बीच सत्ता से टकराव का भ्रम पैदा कर अपनी छवि चमका लेंगे. बातें इतनी सीधी-सरल टू + टू नहीं, जैसा आप कह रहे हैं.
- छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार होने से कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहल को विज्ञापन लेने में दिक्कत हुई हो. यह दुखद स्थिति है कि हिंदी की सारी पत्रिकाएं सरकारी विज्ञापनों पर आधारित हैं. समयांतर भी इसका अपवाद नहीं है और हंस तो बिल्कुल भी नहीं. यदि आप यह कहते हैं कि भाजपा सरकार होने से कभी ऐसा नहीं हुआ कि पहल को विज्ञापन लेने में दिक्कत नहीं हुई तो यह क्यों नहीं बताते कि यह कैसे हुआ कि हिंदी की बहुत सारी पत्रिकाओं की तुलना में बिल्कुल नई पत्रिका होने और कम प्रसार संख्या के बावजूद कांग्रेस सरकार के भरपूर विज्ञापन समयांतर को आरंभ से ही मिलते रहे? साम्राज्यवादी अर्थनीति द्वारा पैदा धर्मनिरपेक्षता की चाकरी को आप भाजपा की सांप्रदायिकता से श्रेष्ठ भले समझते हों, पर ये दोनों भुलभुलैयाएं हैं, इन दोनों से न निकल पाना इस राष्ट्र का एक गंभीर और करुण प्रसंग है. आप इसे सतही प्रगतिशील लफ्फाजी से निपटा कर अधिक से अधिक अपनी नकली छवि निर्मित कर सकते हैं.
- आप कह रहे हैं कि पहल को बुनियाद से ही आम पाठक के लिए नहीं बनाया गया था. आपकी ‘आम पाठक’ ग्रंथि का जवाब पहले दिया जा चुका है, पर यह काम आपकी पत्रिका ने क्यों नहीं किया? समयांतर कितनी छपती और बिकती है? फिर एक दूसरा संजीदा प्रश्न भी इससे जुड़ता है, कि न्यूज प्रिंट पर छपने और कम पृष्ठ होने के कारण समयांतर की लागत अत्यल्प है, पहल की तुलना में कई गुना कम. क्या यह नैतिकता का तकाजा नहीं है कि आप समयांतर को निरंतर मिलने वाले सरकारी विज्ञापनों का उपयोग समयांतर को कम से 10-20 हजार छाप कर आम पाठक के साथ न्याय करें. यहाँ यह कह देना समीचीन होगा कि समयांतर पर आने वाली लागत और विज्ञापनों से होने वाली आय के बीच के अनुपात की गणना करना बहुत मुश्किल काम नहीं है.
- आपको यह बताना चाहिए कि पहल ने पत्रिका को चलाने के लिए वे कौन से अनैतिक, गैरकानूनी, या गलत तरीके अपनाए. यह पूरा हिंदी बौद्धिक संसार जानता है कि पहल का प्रकाशन और उसका हिंदी की रचनात्मकता पर प्रभाव, पिछले पचास वर्षों के हिंदी साहित्य की सबसे ठोस, सबसे सम्माननीय घटनाओं में से है. आप इतना गंभीर आरोप किस जमीन पर खड़े हो कर लगा रहे हैं?
- इतनी सारी मिथ्या और अनर्गल बातों के बाद आप अंत में यह नसीहत देने से भी नहीं चूक रहे हैं: ‘‘पहल जैसी पत्रिकाओं से यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे ऐसी व्यवस्था बनाएँ कि उनके संस्थापक संपादकों के बाद भी पत्रिका चलती रहे।’’ आप क्यों ऐसा चाहते हैं? एक पत्रिका जो आम पाठक के लिए नही है, जिसको निकालने के लिए गैरवाजिब तरीके अपनाए गए और यही नहीं जिसका लेखक वर्ग भी नकली है. उसके बंद होने पर तो आपको प्रसन्न होना चाहिए. यह दोहरापन क्यों? क्यों यह पाखंड? दरअसल आप निंदा का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते. आप चित भी मेरा पट भी मेरा वाली भाषा बोल रहे हैं. किसी पत्रिका को चलाए रखने की आपकी नेक मंशा को मान भी लिया जाए तो कई व्यावहारिक सवाल उठते हैं, आप बताएँ कि आप एक लेखक हैं, और आपकी संतानें हिंदी पढ़ने-लिखने में कितनी रुचि लेती हैं? उनका साहित्य और विचारों से कितना जुड़ाव है? हिंदी के पाखंडी लेखको! आपने अपने परिवारों में आगामी पीढ़ी को साम्राज्यवाद की चाकरी के लिए बड़े कौशल के साथ तैयार किया है, आप किस पाठक वर्ग के लिए हिंदी की पत्रिकाओं की अमरता चाहते हैं? दूर-दराज के कस्बो के गरीबों के बच्चों के लिए ताकि वे आपकी आदर्शवादी बातें पढ़ें और आपको अपना रहनुमा मानें? ये सारे जीवन के वे गंभीरतम सवाल हैं, जिनके बारे में हिंदी का अधिकांश लेखक समुदाय सोचना तक नहीं चाहता और आसमान पर बैठकर हवाई बातें करता है.
- आपने बड़ी आप्त शैली और वाक्य विन्यास में लिखा है, ‘‘असल में किसी भी संस्थान या सामाजिक प्रयत्न को बचाने के लिए ऐसी उदारता की जरूरत है, जो अपने परिवार जाति और संप्रदाय से आगे बढ़ कर सोचने में समर्थ हो।" शायद आपके इस समूचे विरोध की सबसे महत्वपूर्ण, सार्थक बात यही है. अब पहल तो बंद हो गई. और वह आम पाठकों की पत्रिका भी न थी. क्यों नहीं समयांतर के लिए ऐसा प्रबंध करते? ऐसी उदारता के साथ, जो अपने परिवार जाति और संप्रदाय से ऊपर उठी हुई हो! निजी बातें कहना शोभा नहीं दे रहा है. पर कुछ मसले ऐसी जगहों पर आकर अटक जाते हैं कि निजी का हवाला सत्य की एकमात्र कसौटी बन जाता है. बेचारे ज्ञानरंजन तो मध्यप्रदेश के कस्बाई शहर जबलपुर के एक मामूली से घर में रहते हैं. रुपया-पैसा भी उन्होंने नहीं जोड़ा, पहल को विज्ञापन जरूर मिलते रहे, पर ज्ञानरंजन की मूर्खता यह कि उत्तरोत्तर पहल को अधिक बेहतर कागज पर छापने, पृष्ठ बढ़ाने, सज्जित करने, फिर अलग से पुस्तिकाएँ छापने में इस सारे पैसे को जाया कर देते रहे. समयांतर के संपादक महोदय के दिल्ली में दो फलैट हैं. दोनों की कुल कीमत सवा करोड़ रुपए से अधिक है. इसके अलावा आपने सरकार के एक महत्वपूर्ण पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति भी ली है. बाकी संसाधन भी कम नहीं हैं. इस सपंत्ति में से कम से कम आधे या फिर पूरे का भी उपयोग आप समयांतर के लिए एक ट्रस्ट बनाने में कर सकते हैं. और हिंदी को सचमुच एक ऐसी पत्रिका दे सकते हैं, जो कम से कम एक-दो करोड़ रुपए की मजबूत आर्थिक नींव पर खडी हो, जो जनता के मुददे उठाए, जो लाखों आम पाठकों तक पहुंचे, जिसका प्रसार कम से 2-3 लाख हो और जिसकी कही बातों का सामाजिक मूल्य बने और यह मूल्य उसे सत्ता और सरकार को सचमुच चुनौती देने की स्थिति में भी लाकर खड़ा कर दे.
पहल जबलपुर जैसे छोटे कस्बाई शहर से एक ऐसे समय निकली जब उसकी सख्त जरूरत थी. जरूरत इसलिए थी कि मार्क्सवादी साहित्यिक मूल्यों पर आधारित समकालीन रचनाधर्मिता के लिए एक रचनात्मक केंद्र बन सके. पहल ने अपनी यह भूमिका पूरी गरिमा के साथ निभाई. मैं जानता हूँ कि हिंदी का हर संवेदनशील पाठक जो पहल की भूमिका को जानता है और ज्ञानरंजन को जानता है, वह भले पहल से असहमत हो, ज्ञानरंजन से उसकी असहमतियाँ हों, इस पूरे प्रकरण से आहत हुआ है -- देश भर में. क्या पहल की विदाई पर इस तरह की टुच्ची राजनीति शोभनीय लग रही है? क्या यह सचमुच कोई वैचारिक मसला है? पहल का बंद होना हिंदी के साहित्य समाज के लिए कितना बड़ी क्षति है, वह यह जानता है, पर क्या सचमुच इस प्रकरण का इस्तेमाल दमित कुठाओं को निकालने के लिए किया जाना चाहिए. मैं जानता हूँ इन प्रतिक्रियाओं के मनोवैज्ञानिक कारण क्या हैं. एक सुरक्षित जीवन जीते हुए, व्यवस्था से चैतरफा लाभ लेते हुए, संपत्ति और परिवार के ढांचे में तयशुदा व्यक्तित्व जीते हुए खुद की छवि रूसो, वाल्तेयर या प्रबोधन काल के बौद्धिकों जैसी कस्बाई पाठकों पर प्रक्षेपित करने की दयनीय चेष्टा ही इसका मनोवैज्ञानिक कारण है. हिंदी के ये पिददी बौद्धिक नहीं जानते कि विचारों और सिद्धांतों के लिए जीना एक दूसरी बात होती है और उन्हें इस्तेमाल करते हुए जीना एक दूसरी बात.
इन टिप्पणियों की सबसे बड़ी खामी यह है कि ये टिप्पणियाँ व्यक्तिवादी किस्म की हैं और चरित्र-हनन के प्रच्छन्न उद्देश्य से लिखी गई हैं. इन टिप्पणियों में इस बात की कोई चिंता नहीं है कि साम्राज्यवाद ने राष्ट्रों की संस्कृति के साथ, भाषा के साथ और मानवीय सर्जनात्मकता के साथ क्या कर दिया है. यानी यह कि आज हिंदी साहित्य, समाज और संस्कृति किस हाल में है. क्या पहल एक अकेले ज्ञानरंजन की जिम्मेदारी है? क्या हिंदी में बड़ी-बड़ी सैद्धांतिक और किताबी बातें बघारने वाले लोग वास्तव में इस बात से चिंतित हैं, कि इस भाषा और इसके साहित्य के साथ प्रकारांतर से इसकी वैचारिकता और सर्जनात्मकता के साथ क्या हो गया है? क्या इस गहरे सांस्कृतिक संकट को लेकर वे कर्म के स्तर पर कहीं सचमुच चिंतित हैं, संबद्ध हैं? क्या ये लोग कभी इस बात को सोचना भी चाहेंगे कि क्यों 35 वर्षों तक निकलने के बाद 50 करोड़ के हिंदी समाज में वह इतना क्यों नहीं बिक सकी कि एक बड़े संस्थान का रूप ले पाती और जिसकी अनंतजीविता एक व्यक्ति ज्ञानरंजन पर नहीं बल्कि उसके समाज की होती. क्यों हंस को एक संस्थान का रूप ग्रहण करने के लिए, प्रभा खेतान, गौतम नवलखा, आदि न जाने कितनों के पैसे पर अवलंबित रहना पड़ा ? इस समाज में इतनी शक्ति क्यों नहीं है? यह कैसा हिंदी समाज है? हिंदी की कोसों फैली उजाड़ भूमि के बीच यह कौन पंकज बिष्ट, कौन राजेंद्र यादव कौन रवींद्र कालिया हैं, जो ध्वंस के इतने महानाटय के बीच इतने आत्मविश्वास से इतनी कुतर्कपूर्ण बातें लिख देते हैं, और इस बात के लिए निश्चिंत हो जाते हैं, कि वे हिंदी के कमजहन पाठकों का प्रबोधन कर रहे हैं. हम क्यों नहीं संस्थाएँ पैदा कर पाते, हम क्यों नहीं उन्हें मजबूत आर्थिक आधार दे पाते, क्योंकि हम सब उन सेठों की तरह हैं, जिनकी जिंदगी के मूल कार्यस्थल और प्रेरणाएं कहीं और हैं, कुछ और हैं, और जो धर्मशालाए और प्याउ खुलवाकर अमरत्व पाना चाहते हैं, हमारे बुद्धिजीवीगणों का जीवन के प्रति ठीक यही नजरिया है, साहित्य और संस्कृति, विचार और प्रतिबद्धता उनके संपूर्ण जीवन का एक छोटा-सा कोना भर हैं, उसके बल पर वे काल से अमरत्व का सौदा करने चले हैं. आज जो संकट या संकट न कहें स्थिति कह लें, पहल के साथ हुई, वही कल हंस के साथ, समयांतर के साथ होगी ही। इसी भाषा में सांचा जैसी बेमिसाल पत्रिका हिंदी के साहित्यवादियों की जिन बेहूदगियों से बंद हुई उसकी स्मृतियाँ और प्रमाण बहुतों के पास अब भी होंगे. राजेंद्र यादव आज भी इस मसले पर पूरे आत्मविश्वास से झूठ का उत्पादन करते हैं. मेरा मानना है कि हिंदी के लिए पहल से ज्यादा जरूरी सांचा थी, छाती पीटने वाली इन विभूतियों ने सांचा को क्यों नहीं बचाया?
जिन दिनों सांचा बंद हुई, उन दिनों उसके किन्हीं आखिरी अंकों में छपी एक अपील आज भी मेरे पास सुरक्षित रखी है. इस अपील में हिंदी के पाठकों से सांचा को बचाने के लिए पुरजोर आहवान किया गया था और इस बात की पुकार की गई थी, कि पाठक चंदा भेज कर ट्रस्ट निर्माण में सहयोग दें, जो सांचा को जारी रख सके. मुझे उस समय भी इस अपील पर हैरत हुई थी, और आज इस तरह के तमाम पांखडों के एक-एक रेशे को मैं जानता हूँ। उस अपील पर हिंदी की बड़ी-बड़ी विभूतियों के हस्ताक्षर थे -- पचासों के. वे किन अनाम पाठकों से गुहार कर रहे थे? किनका वे आह्वान कर रहे थे? अगर उन आह्वानकर्ताओं ने, जिनमें से अधिकांशतः तब भी बहुत पुख्ता माली हालत में थे, अपनी गाँठ से 10-20 हजार भी निकाले होते तो एक मजबूत ट्रस्ट का निर्माण संभव था, और निश्चित रूप से दूर-दराज के पाठक भी धीमे-धीमें इसमें अपना योगदान देते. परंतु ऐसे प्रयासों की विश्वसनीयता ही स्थापित नहीं हो पाती. क्योंकि ये प्रयास नहीं पाखंड मात्र होते हैं. हंस की महानता का अनवरत ढिंढोरा पीटने वाले राजेंद्र यादव यह कभी नहीं बताएंगे कि क्यों हंस हिंदी पाठकों के लिए इतनी अनिवार्य थी, कि उसके लिए युवा छात्र नेता चंद्रशेखर के हत्यारों के संरक्षक मुख्यमंत्री के हाथों लिए गए गर्हित पुरस्कार से लेकर तमाम तरह के स्रोतों से धन लेने को वे बड़ी वीतरागिता से हंस के जीवन के के लिए जरूरी मानते हैं, उनके अक्षर प्रकाशन से ही निकली सांचा किस तर्क से हिंदी पाठकों के लिए कम जरूरी थी? सांचा के प्रकाशन को हिंदी के समस्त साहित्य समाज ने, समूचे बौद्धिक जगत ने एक ऐसी परिघटना के रूप में लिया था, जो हिंदी में एक ठोस क्रांतिकारी बौद्धिकता के निर्माण के लिए अनिवार्य स्रोत और प्रेरणा का काम करेगी. कुछ माह पूर्व ही, सांचा के बारे में वे हंस के संपादकीय में लिखते हैं कि वह गौतम नवलखा की किन्हीं वैयक्तिक महत्वाकांक्षा से जुड़ी चीज थी, फरवरी 1989 में हौजखास में मन्नू भंडारी के घर पर उन्होंने मुझसे और मेरे एक मित्र से कहा था कि हंस से जुड़े होने के बावजूद गौतम की अकादमिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाने के कारण उन्होंने सांचा निकाली. देखिए तो झूठ और पाखंड की कैसी छटा है! हिंदी का संपूर्ण बौद्धिक समाज एक विराट पाखंड को जी रहा है. ऐसी स्थिति में पहल के बारे में कहे गए सारे आप्तवचन असत्य ही नहीं, अश्लील, गैरजिम्मेदारी से भरे और विद्वेषपूर्ण हैं. और ये सारे कथन आत्मश्लाघा की मानसिकता से उपजे हैं, न कि सचमुच किसी सर्जनात्मक चिंता से.
राजेंद्र यादव किस मुँह से पहल जैसी तीन-चार हजार छपने वाली पत्रिका का स्यापा विधवाओं की शैली में कर रहे हैं. क्या मैं इस बात को किसी भी दिन भूल पाऊँगा कि धर्मयुग के बंद होने पर किस तरह की अमानवीय चुप्पी उन्होंने ओढ़ी थी और अपने कार्यालय में कथाकार अखिलेश से मुझे बेइज्जत करवाया था, क्योंकि मैं उनसे एक मामूली से विरोध-पत्र पर हस्ताक्षर करने का अनुरोध करने के लिए मुंबई से हंस-कार्यालय गया था. जबकि धर्मयुग के बंद होने से वहाँ के कर्मचारी बेरोजगार हुए थे, और पूरे देश में यह मैसेज गया था कि हिंदी की पत्रिकाएँ चल ही नहीं सकतीं. कहाँ था तब राजेंद्र यादव का वह पत्रिका-प्रेम, जो पहल के बंद होने पर इस कदर बिलख उठा है!
मेरा मसला इन तथाकथित बौद्धिकों की आलोचना करना नहीं है, क्योंकि समय हर छद्म को एक दिन उधेड़ ही देता है, सुरक्षित संबंधों, सुरक्षित जिंदगियों वाली क्रांतिकारिता की पोल खुलती ही है. लोगों की वास्तविक मंशाएँ उजागर होती ही हैं. मैं सिर्फ इस बात को रेखांकित करना चाह रहा हूँ, कि हमारी भाषा के लिए यह संकट काल है, किसी भी पत्रिका का बंद होना, न चलना, कुछ बड़े सवालों से जुड़ता है, क्या हमें इस बात के बारे में नहीं सोचना चाहिए?
कृष्णा सोबती ने अहा जिंदगी में लिखा है कि लेखकों को पाँच पाँच हजार जमा कर एक ट्रस्ट जैसा बना कर पत्रिका निकालनी चाहिए. मैं हिंदी के बौद्धिक क्षेत्र में पिछले 20 सालों से वाकिफ रहा हूँ. मैं ऐसे सैकड़ों लेखकों को जानता हूँ , जो साहित्य के चेग्वेरा हैं, इतनी बड़ी बड़ी बातें, इतने गहन लेख, इतने विराट सेमिनार, चिंता का इतना बड़ा कारोबार! क्यों 5-5 हजार रुपए भाई? हिंदी के वरिष्ठ लेखकों, आपमें से कम से कम दस दर्जन लोगों को मैं जानता हूँ, जो राजधानियों में 50 लाख से एक करोड़ के फ्लैट में रहते हैं, जिनकी पूरी माली हालत का आकलन 2 से 3 करोड़ के बीच बैठेगा, जिनकी अगली पीढ़ी अमरीका में मोटा पैसा काट रही है, या काटने के लिए तैयार हो रही है, तो भाई साहित्य के नाम पर चिंता का कारोबार न कर क्यों नहीं 4-5 लाख प्रति लेखक चंदा किया जाए? हिंदी समाज में एक 3-4 हजार की बिक्री वाली पहल नहीं, बल्कि एकाध लाख के प्रसार वाली पत्रिका क्यों नहीं निकाली जा सकती? यह बात बहुतों को मजाक और अतिरेकी लगेगी. इतनी मोटी रकम भी भला गाँठ से कोई निकालता है? तो फिर बड़ी-बड़ी चिंताएँ मत करिए. सच की चाशनी में इतना झूठ मत परोसिए और चरित्र हनन को सैद्धांतिक भाषा में मत सजाइए.
अंत में यह कहना आवश्यक है कि पहल के बंद होने को जो रूप देने की कोशिश की जा रही है, वह जनता से कटे हिंदी के बौद्धिक वर्ग की उस प्रकृति को ही उजागर करती है, जो आत्मनिष्ठ है, और जिसके लिए विचारधारा और सृजन एक साफ्ट किस्म के वैयक्तिक रोजगार से ज्यादा महत्व नहीं रखते. यह लेख हिंदी साहित्य की दो परंपराओं -- कर्मठता, श्रम, और निवैयक्तिक प्रयत्न तथा दर्प, और छिछोरेपन के फर्क को रेखांकित करने और उसमें से एक धारा को अपने और अपनी पीढ़ी के लिए चुनने के लिए लिखा गया है, अन्यथा किसी ज्ञानरंजन या पहल को न तो ऐसे बचावों की जरूरत है, न अपने पक्ष में किन्हीं बयानों, तर्कों, दस्तावेजों की और न ही आत्ममुग्ध कुतर्कियों को अपने पराभव के लिए समय और काल के प्रहार के इतर किसी प्रहार की.
- आलोक श्रीवास्तव
ए ४ , ईडन रोज़ ,वृन्दावन काम्प्लेक्स
एवर शाइन सिटी,
वसई रोड (पूर्व), ( जिला- ठाणे )
पिन .. 401 208 ; (वाया मुंबई )
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बहुत ही विचारणीय लेख.
जवाब देंहटाएंसमयचक्र: रंगीन चिठ्ठी चर्चा : सिर्फ होली के सन्दर्भ में तरह तरह की रंगीन गुलाल से भरपूर चिठ्ठे
आदरणीया कविता जी,
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यों कल से कुछ चिठ्ठों पर टिप्पणी पोस्ट नहीं हो पा रही है। अभी हिन्दी-भारत पर यह टिप्पणी डालना चाह रहा था तो सब कुछ उड़ गया। संयोग से समूह पर संदेश चला गया है। चाहें तो इसे हिन्दी भारत में यथास्थान प्रकाशित कर दें।
सादर!
(सिद्धार्थ)
इस पूरे प्रकरण को विस्तार से पढ़ने के बाद मेरे जैसा एक सामान्य और खालिस पाठक तो यही निष्कर्ष निकालेगा कि यह हिन्दी साहित्यकार और सम्पादक भी एक व्यक्ति के रूप में उन्हीं न्यूनताओं, पूर्वाग्रहों, ईर्ष्या-द्वेष-अहंकार और आत्मश्लाघा के भाव से ग्रस्त हैं जितना एक कम पढ़ा-लिखा साधारण मनुष्य इस दुनियादारी को भोगते हुए स्वाभाविक रूप से प्रकट करता रहता है। ये भी आपसी वाद-संवाद में उतनी ही तुच्छ और घिनौनी बातों का प्रयोग करते हैं जितना गाँव के अनपढ़ घरों की औरतों-मर्दों द्वारा आपसी तू-तू मैं मैं में किया जाता है। धत्...
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)
http://satyarthmitra.blogspot.com
tripathito@yahoo.com
मैंने इस आलेख को इस ब्लॊग की वेब हिन्दी-भारत (याहूसमूह)के सदस्यों को भी अग्रेषित किया था, वहाँ जो टिप्पणियाँ प्राप्त हुईं, उन्हें भी एक एक कर यहाँ टाँक रही हूँ।
जवाब देंहटाएं( यह सन्देश डॊ.अजित गुप्ता (सं.-‘मधुमती’) का
सिद्धार्थ जी
ये तो उनसे भी घटिया हैं। ये लोग समूह बनाकर चलते हैं, बाते नवीनीकरण और प्रगतिशीलता की करते हैं और किसी भी नवीन व्यक्ति को साहित्य क्षेत्र में पदार्पण का विरोध ही नहीं करते अपितु उसका चरित्र-हनन भी करते हैं। यही कारण है कि दिनकर, महादेवी के बाद कोई भी प्रतिभाशाली साहित्यकार नहीं हुआ। आज जो लोग साहित्य के ठेकेदार बने घूमते हैं वे वास्तव में साहित्य का जनाजा निकाल रहे हैं। किसी भी पत्रिका का बन्द होना या चलना इतना बड़ा विषय नहीं है जितना ये लोग बना देते हैं।
dr. smt. ajit gupta
7 charak marg udaipur
http://ajit09.blogspot.com
आलोक जी ने बहुत बेबाक टिप्पणी की है. लेकिन बाद की टिप्पणियां अचरज जगाती हैं. भई किसी पत्रिका का, अगर वह 'पहल' जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका हो, अफसोस और चिंता का विषय क्यों नहीं है? हमारी विचारधारा चाहे जो भी हो, और होनी भी चाहिए, इतना खुलापन तो हममें होना चाहिए कि उससे भिन्न के उत्कृष्ट को भी हम स्वीकार करें. प्रगतिशीलता में सब कुछ अगर बुरा ही होता तो फिर पूरी दुनिया भगवा रंग में रंग गई होती. आखिर कुछ तो होगा न प्रगतिशीलता में कि उसके नाम लेने वालों की संख्या मामूली नहीं है. और इस बात पर तो क्या कहा जाए कि दिनकर, महादेवी के बाद हिन्दी में कोई प्रतिभाशाली साहित्यकार नहीं हुआ!
जवाब देंहटाएंहे प्रभु उन्हें क्षमा करना जो नहीं जानते कि वे क्या कह रहे हैं.
Dr.D.P.Agrawal
E-2/211, Chitrakoot,
JAIPUR-302 021
Phone 0141-2440782
Mobile: 9414078063.
लेख बहुत तर्कपूर्ण ढंग से लिखा गया है. बहस इसी तरह होनी चाहिए.
जवाब देंहटाएं''पहल'' के बहाने हिंदी पत्रकारिता और साहित्यजगत के मठाधीशों के छद्म-क्रांतिकारी चरित्र का यह खुलासा आँख खोलने वाला है. इस तरह के दोहरे व्यक्तित्व वाले पत्रकारों/ लेखकों की फतवेबाजी के कारण बहुत बार दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न लोगों को तिरस्कार और व्यंग्य का पात्र बनना पड़ता है --''ओह! तो यह है तुम हिन्दीवालों की सच्चाई!''
जवाब देंहटाएंकोई इन पाखंडियों के कालर खींचकर इन्हें गदहे की सवारी क्यों नहीं कराता?
वस्तुतः ''पहल'' के बंद होने का मलाल इन तथाकथित स्वनामधन्य सम्पादकों /बुद्धिजीवियों से अधिक उन सामान्य पाठकों/ छात्रों/ शोधार्थियों को है जिनके लिए वह एक सधी हुई जनपक्षीय पत्रिका थी जो अतिशयोक्तियों और फतवेबाजियों से बची हुई थी.
अत्यंत विचारपूर्ण , साहसिक और तथ्यात्मक आलेख के लिए धन्यवाद.
aalekh achcha hai,lekin Alok Bhai bhi to adha sach bolte hain. Rajkamal ko chode,Smvad ke paperback hi konse saste hain?Muje lagta hai ki jarurat is bahas ki hai ki Sampadak sanstha ke patan ke dino me Patrikaon ko kaise bachaya jaye?
जवाब देंहटाएंLekh me kuchh jaruri prasang, tathya, sandarbh uthaye to gagey hain, jinhen padkar lagata hai ki Harinarain ji ko is lekh ko chhap hi dena chahiye. Phir bhi Alok ji ki bhasha me akrosh kuchh jyada ubhar kar aaya hai jo maryadit ki shreni me nahia aata. Alok ji, Dudh ke dhuley to koi nahi hain. Pahal ki kami khal rahi hai.Uska band hona khal raha hai, per uske bahane charcha me rahane wahe bhi khal rahe hai. Alok ji ajkal aap lagata hai Hindi per Ahshan karane lagey hai. Aap ko yhan Piddi bher buddhjiwi dikhate hai? Bhai kahan aap ko pahad bher dikhtey hain? Ush din ka intejar hoga jab aap English me hi kitabeyn chhpenge.Jaldi aakrosh vyakt karane se bachen to behtar. Yad hai aap ko, maine aap se Katha Me Ganv Ki prati mangi thi to aap ne kya kaha tha ? Aisa lagata hai ki aap hindi per ahsan kar rahen hai. sahitya ke pathak na to abhi kam hai, na pahale jyada the. Kishi ke prati aati moh bhi uchit nahi hota. subhash chandra kushwaha,Lucknow
जवाब देंहटाएंpravin sharma
जवाब देंहटाएंto vijay1948ster, me
show details 22:13 (19 hours ago)
Reply
vijaya ji,
thanks to a kind friend,DR. KAVITA VACHAKNAVEE,whom i do not know personally, i got the article on Unicode font.
thanks to the kind benefactor and to you.
it is rather sad that the contemporary Hindi scene lacks , a towering personality whose immense presence could settle such acrimonious issues amicably.
nevertheless, a dent has been made,which is not merely polemics
thanks.and regards.
waiting for your response.
yours
pravin sharma
विद्यासागर नौटियाल जी की ‘मेल’ से प्राप्त टिप्पणी -
जवाब देंहटाएंFrom: nautiyal vidyasagar - nautiyalvs@yahoo.com
Date: Thu, Mar 12, 2009 at 10:07 AM
Subject: Re: jaruri aalekh ke bare mein
maine blog dekkha. 2006 ke baad se maine
'kathadesh' se apne rishte tod liye the . usne mujhe
bhi kaafi be-izzatkiya tha. lekin mein kisi se aisi chhejon
ka zikra tak nahin karta.apna samay kimti hota hai, uska
upyog rachnatamak karyon mein hi k iya jana chahiye, aisa
mera maana hai.
'kathadesh ' ki'pahal' se tulna nahin ki
jani chahiye.hari ghass ko char jayenge brishabh kaal
ke/ikkiswin sadi mein/amar bachan ye/vidya sagar nautiyal
ke.